बिहार के समहुता से आये नवल सिंह जो एक जागीदार थे। उन्हें गाजीपुर में दीनदार खां के नाम से भी जाना जाता है। ये ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने इस्लाम कबूल करके खुद को दीनदार खां का नाम दिया था और अपने नाम पर दीनदार नगर बसाया था। बाद में चलकर इनके नाम को हटाकर इस नगर का नाम दिलदार नगर रख दिया गया। हिंदू- मुस्लिम की एकता के मिसाल बने इस नागरिक द्वारा बसाए गए इस नगर का 330 साल पूरा होने पर सामाजिक सांस्कृतिक एवं साहित्यिक मंच उद्धव के बैनर तले एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया। जिसमें प्रसिद्ध कवि भी शामिल हुए।
बतादें कि गाजीपुर का यह नगर अपनी सदियों पुरानी पहचान अब खोकर दिलदार नगर के नाम से जाना जाने लगा है। मुहम्मद दीनदार खां के दसवीं पीढ़ी के वंशज कुंअर नसीम रजा खां ने बताया कि 330 साल पहले राजा मुहम्मद दीनदार खां उर्फ कुंअर नवल सिंह ने सात मुहर्रम 1110 हिजरी को मौजा अखंधा, टप्पा कमसार, परगना मदन बनारस उर्फ जमानियां,सरकार ग़ाज़ीपुर, सूबा इलाहाबाद को 592 आलमगीरी मुद्रा में क्रय किया, जो कि मुगलकालीन दस्तावेज़ क़बालानामा (क्रयपत्र) में दर्ज है। दिलदारनगर के 330 साल के बुनियाद का इतिहास पता होने पर स्थानीय लोगों में काफी खुसी देखने को मिल रही है। जिसका इजहार उद्भव संस्था ने अपने इलाके के इस 330 को यादगार बनाने के लिए एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया। जिसमें कई नामी कवियों ने काव्य पाठ कर इसके यौमे पैदाइश को यादगार बना डाला।
उन्होंने कहा लोग भले ही मरते हो लेकिन उनके द्वारा किये गए वाकये मरते नही बल्कि अपना एक अलग इतिहास बना जाते है। ऐसा ही कुछ 330 साल पहले दिलदारनगर को बसाने वाले नवल सिंह ने किया था जो बाद में दीनदार खा हो गए थे। फारसी दस्तावेजों के मुताबिक बादशाह औरंगजेब आलमगीर ने 1085 हिजरी में दीनदार खां उर्फ नवल सिंह के भाई मियां दानिश खां को सपरिवार लाहौर बुलाकर पूरे राजकीय सम्मान के साथ अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया, बादशाह के इस व्यवहार से खुश हो कर इन्होने सपरिवार इस्लाम धर्म कुबूल कर लिया। जिसका जिक्र बादशाह द्वारा लाहौर से जारी शाही फरमान फरजंदनामा (गोदनामा) में मिलता है। इस्लामी संस्कृति के अनुरूप पूरे परिवार का नामकरण हुआ इस वजह से कुंवर नवल सिंह से मुहम्मद दीनदार खां बन गये। मुहम्मद दीनदार खां ने बादशाह से अपनी पुश्तैनी जगह आने की इच्छा जाहिर किया, जिसे बादशाह ने कुबूल कर लिया। वह पहले से ही इस्लामगढ़ के जमींदार थे, इसी कड़ी में बादशाह ने दीनदार खां को 1000 सैनिक, घोड़ों व हथियार के साथ ‘राजा’ एवं ‘खान’ की उपाधि व बहुत सी इनामात के साथ रवाना किया। लाहौर से आकर मौजा अखंधा, टप्पा कमसार, परगना मदन बनारस उर्फ जमानियां, सरकार गाजीपुर सूबा इलाहाबाद में स्थित अपनी जागीर के एक बहुत बड़े कोट पर आबाद हो गये और परगना की जागीरदारी सम्भालने लगे। कुछ महीनों के बाद सात मुहर्रम 1110 हिजरी को मौजा अखंधा को 592 आलमगीरी मुद्रा में क्रय किया। जिसके बादे उस पूरे इलाके को दीनदारनगर के रूप में जाना जाने लगा। जिस कोट पर बसे वह राजा मु० दीनदार खां के कोट के नाम से मशहूर हुआ। मुहम्मद नसीम रजा खां बताते हैं कि सन् 1839 से 40 ई0 तक के भू-राजस्व अभिलेख सहित अन्य दस्तावेजों में दीनदारनगर का नाम दर्ज है। इसके बाद इस नगर का नाम न जाने कैसे दिलदारनगर हो गया। इसके बारे में एक यह भी तर्क दिया जाता है कि शाब्दिक गलती भी दीनदारनगर को दिलदारनगर में तब्दील करने की एक अहम वजह हो सकती है। आज मुहर्रम की सातवीं तारीख को मुहम्मद दीनदार खां ने दीनदारनगर की स्थापना किया था। इस नगर को बसे 330 साल हो गये। इतिहास के पन्नों में यह इलाका दीनदारनगर के नाम से दर्ज तो है मगर आज अपने असली नाम से महरूम है। लोग इसे दिलदारनगर के नाम से जानने लगे हैं। कौमी इकजहती के लिए मशहुर कमसार व बार का यह खित्ता लोगों के जेहन में अपनी विरासत की असली निशानी को दस्तावेजी रूप से बता पाने में आज भी नाकाम है। मुगलिया जागीरदार राजा मुहम्मद दीनदार खां के दसवीं वंशज कुँअर नसीम रजा खां ने अपनी विरासत के औराक संजोने का काम जरूर किया है मगर इस नगर को उसकी असली पहचान व नाम दिला पाने में आज भी लगे हुए हैं।
इनपुट- आलोक त्रिपाठी (गाजीपुर)