script1740 में नवाब शेख अब्दुल्लाह ने दरबारियों संग फूलों की होली खेलने की परंपरा को किया था मजबूत | Holi Celebration in Ghazipur in Nawaab Sheikh Abdullah Regime 1740 | Patrika News

1740 में नवाब शेख अब्दुल्लाह ने दरबारियों संग फूलों की होली खेलने की परंपरा को किया था मजबूत

locationगाजीपुरPublished: Mar 29, 2021 11:31:43 am

नवाबी दौर में और पक्का हुआ होली का रंग, सरकारी तौर पर भी मनाए जाते थे रंग के उत्सव
इतिहासकार उबैदुर्रहमान सिद्दीकी ने बताया गाजीपुर में नवाबों के दौर की होली का इतिहिास

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प्रतीकात्मक फाेटाे

पत्रिका न्यूज नेटवर्क

गाजीपुर. हिंदुस्तान में रंगों के त्योहार होली के आकर्षण और उल्लास से शायद ही कोई बचा हो। इतिहास में जगह-जगह जिक्र मिलता है कि कैसे नवाबों और कई मुगल बादशाहों के दौर में होली का रंग और गाढ़ा हुआ। उनके जमाने में खुद नवाब, बादशाह दरबारियों संग होली खेलते थे। गाजीपुर में भी नवाब शेख अब्दुल्लाह के जमाने में तो होली खेलने के लिये बकायदा अलग बजट हुआ करता था। उन्होंने दरबारियों संग फूलों से होली खेलकर इस परंपरा को और मजबूत किया।


गाजीपुर में नवाबी दौर में होता था सरकारी उत्सव

इतिहासकार उबैदुर्रहमान सिद्दीकी बताते हैं कि अवधकाल में गाज़ीपुर में होली, होलिका या होलाका नाम से सरकारी तौर पर उत्सव मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। तत्कालीन कृतियों में विशेषकर बलवंतनामा तथा तारीख राज बनारस के इतिहास में इस बात का जिक्र है कि शाहजहां के जमाने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। गाजीपुर के नवाब फ़ज़्ल अली के बारे में मशहूर है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।

‘तोहफ ए ताज़ा’ नामक पुस्तक में एक तथ्य यह दर्ज है कि इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।

 

 writer ubaidurrahman siddiqui

 

कृतियों में बिखरे हैं होली के रंग

भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। सिद्दीकी बताते हैं कि जहां ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के, जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है ‘आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री’। चौकिया के क़ाज़ी अहमद हुसैन के अप्रकाशित अवधि के काव्य संग्रह में अनेक धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे- ‘चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर’ आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है- ‘खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी’।


होली के राग

भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता था और जन-जन पर इसका रंग छाने लगता था। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियां थीं।

होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली हैं, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता था। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं।

होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य था।


होली की टोली पर छिड़कते थे इत्र, खिलाते मिठाई

इस तरह गाज़ीपुर की होली को नवाबी दौर में नई पहचान मिली। 1740 नवाब शेख अब्दुल्लाह ने दरबारियों संग फूलों के रंग होली खेलने की परंपरा और मजबूत की। वे खुद भी उन रंगों से होली खेलते थे और उनके दरबारी भी। नवाब फ़ज़्ल अली के युग मे होली का ये रंग और गाढ़ा हुआ। उन्होंने बाकायदा होली के लिए अलग राशि का प्रबंध करवाया। उनकेसमय तक फूलों के रंगों से होली खेलने का रिवाज घर कर गया। गंगा जमुनी तहजीब की यही होली लगातार जारी रही। आज जो नवाबगंज,उर्दू बाजार, गोसाईदासपुरा, रुई मण्डी, स्टीमर घाट आदि जगहों में देखते हैं वो उसी होली की परंपरा का स्वरूप है। हिंदू जब होली खेलते हुए जब मुस्लिम इलाकों से गुजरते थे तो वे वहां इत्र छिड़ककर मुंह मीठा कर स्वागत करते थेl

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