गाजीपुर

जब साइकिल का पंचर बनाने वाले मामूली कांग्रेसी ने जनसंघ के बड़े नेता को चुनाव हरा दिया था

1971 के निकाय चुनाव में साइकिल पंचर बनाने वाले कांग्रेस प्रत्याशी ने जनसंघ के नेता का भारी अंतर से हरा दिया था।

गाजीपुरNov 13, 2017 / 08:04 pm

रफतउद्दीन फरीद

नेता भूनेश्वर

गाजीपुर. साल 1971 के यूपी निकाय चुनाव में साइकिल का पंचर बनाने वाले भुनेश्वर ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा था। भुनेश्वर तब गाजीपुर जिले की सैदपुर नगर पंचायत में चुनाव लड़ रहे थे। उन्हें कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी बनाया था। उनका पेशा था साइकिल का पंचर बनाना और जमा पूंजी के नाम पर महज एक कच्चा मकान जो आज तकरीबन वैसा ही है। पर चुनाव में उनका मुकाबला था उस समय वहां के नामचीन मंझे हुए जनसंघ के नेता से। भुनेश्वर का चुनाव दिलचस्प हो गया। जनसंघ के नेता ने अपना पूरा जोर लगा दिया, जबकि चुनाव चल रहे थे। जनसंघ अपना पूरा जोर लगाकर चुनाव में उतरा था। दूसरी ओर भुनेश्वर रोजाना अपनी दुकान पर पंचर जोड़ते और बैठे-बैठे ही अपनी ईमानदारी और साफगोई के चलते 180 वोटों से जीत गए।

मामला यूपी के निकाय चुनाव का है। गाजीपुर के सैदपुर नगर पंचायत सीट पर तब महज चार वार्ड हुआ करते थे। वो ऐसा समय था जब सभासद बनना समाजसेवा करने और अपनी पहचान बनाने के लिये एक शौक की तरह हुआ करता था। उस समय सैदपुर के एक वार्ड में मुकाबला दिलचस्प हो गया। एक तरफ जनसंघ के नेता थे और मजबूत उम्मीदवार थे। उनके सामने थे साइकिल बनाने वाले पंचर बनाने वाले भूवनेश्वर। उन्हें कांग्रेस ने टिकट दिया था। लोगों ने भूनेश्वर की ईमानदारी और उनके व्यक्तित्व को देखते हुए उन पर भरोसा जताया। यही वजह थी कि भूनेश्वर ने 180 वोटों के बड़े अन्तर से हराया।
 

 

50 रुपये के विकास से जीत लिया था लोगों का दिल
भूनेश्वर बताते हैं कि तब सभासदी का चुनाव लड़ना अपनी पहचान बनाने और समाज सेवा के लिये लड़ा जाता था। आज की तरह सभासदों को विकास के लिये इतनी बड़ी रकम नहीं मिलती थी। उन्हें भी अपने वार्ड में विकास कार्य के लिये रकम मिली। पर वह रकम बेहद छोटी थी। महज 50 रुपये में उन्हें अपने वार्ड में विकास कार्य कराना था। उस समय वार्ड में एक कुआं था जो वहां के लोगों के लिये जीवन रेखा जैसा था। भूनेश्वर ने अपने 50 रुपये से कुएं की सफाई करा दी। इस काम से वार्ड की जनता उनसे बेहद खुश हुई।
 

तब पैसे देकर नहीं बुलानी पड़ती थी भीड़
भूनेश्वर अपने चुनाव के दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि उन दिनों हमें चुनाव के लिये बहुत ज्यादा खर्च नहीं करना पड़ता था। तब भीड़ जुटाने के लिये रुपये नहीं खर्च करने पड़ते थे। लोग खुद आते थे। तब नेता को सुनने जो भीड़ आती थी वो उसकी साख पर आती थी। उन्होंने कहा कि जब वह चुनाव लड़े तो लोगों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। महज दीवारों पर लिखावट और कुछ हैंडबिल के जरिये ही वह चुनाव जीत गए।
by alok tripathi

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