नहीं मिल पा रही पर्याप्त सहायता…
21वीं सदी में जब नई पीढ़ी वस्तु विनिमय प्रणाली से पूरी तरह से अनभिज्ञ है, इस वक्त भी झारखंड के पारसनाथ की पहाड़ियों और घोर नक्सल प्रभावित इलाकों में सदियों पुरानी चली आ रही व्यवस्था बरकरार है। लॉकडाउन में इन परिवारों के पास सरकार की ओर से अनाज पहुंचाने की योजना का आधा अधूरा लाभ जरूर पहुंच रहा है, सरकार इन जरुरतमंद परिवारों के लिए जितनी अनाज भेजती है, बिचौलिये उसमें से आधी गायब कर देते है और जो पहुंच पाती है, वह पर्याप्त नहीं हो पाती है।
यूं निकालते है रोली…
पारसनाथ पहाड़ियों के बीच बसे पीरटांड़ प्रखंड के नोकनियां गांव की महिला ने बताया कि आजकल प्रति महीने 5 किलोग्राम सरकारी चावल मिल जाता है, नमक आसपास के कारोबारी रोली के बदले दे देते हैं। समान के बदले समान की कहानी तो दशकों पुरानी है, वस्तु विनिमय तो अब अर्थशास्त्र में भी नहीं पढ़ाई जाती। लेकिन मजबूरियों की दुनिया में सब कुछ मुमकिन हैं। नोकनिया गांव के लोगों ने बताया कि जनवरी-फरवरी के महीने में स्थानीय रोली के पेड़ में छोटे-छोटे बेरनुमा फल निकलते हैं, उसे घीसते हैं तो लाल रोली निकलती है। बहुत मेहनत का काम है। एक परिवार हर साल 2-4 किलो से ज्यादा रोली नहीं निकाल पाता। ऊपर से मौसम खराब रहा तो पेड़ में रोली के फल भी नहीं लगते। इसी रोली को स्थानीय कारोबारियों जिसे ये लोग बनिया कहते हैं उन्हें दे देती है। कारोबारी इन्हें प्रति किलो 10-12 पैकेट नमक दे देते हैं। ये नमक का पैकेट उन पैकेटों से अलग होता है जिसे आप विज्ञापन में देखते हैं। इसी नमक के सहारे साल भर इन लोगों का भात और नमक का भोजन चलता है।
मिलावट करके बेचते है व्यापारी…
सरकार इतना चावल दे ही देती है कि एक आदमी महीने भर एक वक्त चावल खा लेता है और नमक तो स्थानीय व्यापारी रोली के बदले दे ही देते हैं। इसी रोली में ईंट का चूरा, अरारोट जैसी चीजें मिला कर बाजार में बेचा जाता है। एक किलो रोली की कीमत कई सौ रुपए होती है। वो भी मिलावटी वाले की। नोकनिया गांव की महिलाएं ये जानती हैं कि उनकी मेहनत की रोली में मिलावट मिला कर मंदिरों में भगवान को भी लगाया जाता है और भक्त भी मुराद पूरी करने, खुद को शुद्ध-सात्विक का दिखावा करने वाले और तिलक कि सियासत करने वाले भी इसी मिलावटी रोली का इस्तेमाल करते हैं। इन्हें इन सब बातों कोई मतलब नही उन्हें तो बस बिना सुगंध वाले असली रोली के बदले नमक की दरकार होती है जिसके साथ भात खा सके।
कोरोना ने सब कुछ किया चौपट…
जानकारी के लिए बता दें की पारसनाथ जैन धर्मावलंबियों का सबसे बड़ा तीर्थस्थल है। पर्यटन का बहुत बड़ा उद्योग है। मार्बल के दर्जनों मंदिर, धर्मशालाएं हैं जिसके लिए सरकारों ने इको सेंसेटिव जोन को ताक पर रख दिया है। धर्मशालाओं के लिए चंद रुपयों में जमीन दी जाती रही हैं जो बाद में होटल में तब्दिल हो जाते हैं। इन्हीं आलीशान-वैभवशाली मंदिरों और धर्मशालाओं के आस पास आदिवासी-मूलवासी रहते हैं जिनके लिए इस लॉक डाउन ने रही सही अर्थव्यवस्था को पूरी तरह चौपट कर दिया हरहाल अगली बार आप रोली का इस्तेमाल करें तो इन आदिवासियों को जरुर याद करें क्योंकि आपकी सात्विकता, शान और श्रद्धा दिखलाते इस तिलक की कीमत इन लोगों ने अपनी गरीबी और मजबूरी से चुकाई है।