गोरखपुर

अब किसी को किसी का हाल जानने के लिये चिट्ठी का नहीं रहता इन्तजार

डिजिटल क्रांति ने चिट्ठी से सन्देश पहुंचाने के सिलसिले को किया ख़त्म, झटपट सन्देश में वह भावना नहीं जागृत होती जो एक चिट्ठी में होती थी

गोरखपुरOct 10, 2017 / 01:37 pm

धीरेन्द्र विक्रमादित्य

चिट्ठी

धीरेन्द्र विक्रमादित्य गोपाल
गोरखपुर. चिट्ठी हमारी यादों की थाती हुआ करती थीं, हमारी जीवंत संस्कृति का हिस्सा। अपने-अपनों की खैरियत जानने को एक अदद चिट्ठी का इंतजार कितना सुकून वाला होता था। एक रिश्ता था उस डाकिये संग जो हमारे सुख, दुःख की खबरों को हमतक पहुंचाता था। जैसे ही उसके आने की आहट महसूस होती मन बेचैन हो उठता था उस बात को जानने के लिए जो दूर बैठे किसी अपने ने लिख भेजी है। उन प्यार भरे शब्दों को पढ़ भावनाओं का ज्वार उफनता तो आंखें नम हो जाती। अकेलापन महसूस होता तो भी वह चिट्ठियां उस एकाकीपन को दूर करने में सहायक बनती।
 


देश के शहरी क्षेत्र से लेकर दुर्गम क्षेत्रों तक हर मौसम में निर्बाध सेवा देने वाला डाक विभाग कभी हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग हुआ करता था। चिट्ठियां कभी खुशियां लेकर आती तो कभी गम का संदेशा पहुंचाती। दूर बॉर्डर पर बैठे प्रियतम का संदेशा लेकर आती तो लौटती डाक से बड़े होते बच्चों, बूढ़े माँ-बाप के इन्तजार को कम करने की गुजारिश करते हुए जल्दी आने को कहने जाती। किसी के घर नौकरी के इंटरव्यू का तार दे खुशियों से सराबोर कर देती तो दूर दूर रह रहे दो प्रेमियों के दिलो का तार जोड़ने में सहायक बनती थी।
 


चिट्ठी के दौर को करीब से देख चुके आशीष बताते हैं कि बदलते दौर में चिट्ठी की जगह एसएमएस ने ले लिया है। व्हॉट्सएप्प आदि मैसेंजर सर्विस से तुरंत ही हजारों किलोमीटर सन्देश पहुंच जाता लेकिन इसमें वह रुमानियत, प्यार व भावना नहीं महसूस होता जो एक चिट्ठी अपने 10-20 दिन की सफर तय कर पहुँचने के बाद भी महसूस कराती थी। परदेस में रह रहे भाई के लिये रक्षाबंधन पर राखी भेजने के लिए पूरी निर्भरता डाक विभाग पर ही होती थी, वह भी पूरी तन्मयता के साथ समय से पहुंचाने के लिये लग जाते थे।
 


बुजुर्ग रामदरस कहते हैं कि दूर के नात-रिश्तेदारों, परदेस गए बच्चों का हाल जानने का एक मात्र माध्यम पहले डाक ही था। गांव में पढ़े-लिखे भी कम ही होते थे। चिट्ठी लिखवाने व पढ़वाने के लिये भी काफी मसक्कत करनी पड़ती थी। कई बार तो कई कई किलोमीटर दूर चिठ्ठी लिखवाने या पढ़वाने के लिये जाना पड़ता था। हां, उसमें भी एक सुकून हुआ करता था।
 


एक पोस्टमैन बताते हैं कि आज से दो दशक पहले तक इस पेशे में बहुत इज्जत भी थी। हम जिस इलाके में चिट्ठी बांटते थे उन घरों से एक अपनापन झलकता था। एक पारिवारिक रिश्ता कायम रहता था। कई इलाके के लोग जानते पहचानते थे। हम भी एक एक घर के प्रत्येक सदस्य को करीब करीब पहचानते थे। लेकिन अब न वह दौर रहा न वह माहौल।
 


स्नातक की पढ़ाई कर रहे समर तो चिट्ठी-पत्री के दौर से पूरी तरह नावाकिफ हैं। वह मोबाइल सन्देश को जानते-समझते हैं। डाक और डाकिया के बारे में केवल सुने हैं। 15 पैसे के पोस्टकार्ड या 35 पैसे के अंतर्देशीय पत्र को केवल किताबों में ही पढ़े हैं। वह कहते हैं कि बदलते समय के साथ हमारे सन्देश का तरीका भी बदल चुका है। हमारी विकासगाथा में ये सब पुराने दिनों की बात है।
 


बहरहाल, चिट्ठी का वह दौर अब बीते दिनों की बात रह गई। हर गली-मोहल्ले में सड़क किनारे खड़ा वह लाल रंग का बॉक्स अब इतराता नहीं है, कहीं दिख जाता है तो अपनी दशा पर आंसू बहाता हुआ। डाकिया बाबू का इंतजार भी अब नहीं होता। अब तो डाक विभाग सरकारी पत्री तक भेजने तक ही सीमित है, उस चिट्ठिया का इन्तजार तो केवल यादों का हिस्सा ही बनकर रह गया।
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