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कांग्रेस ने निर्विरोध जीत की बनाई ये रणनीति! लेकिन अंदरुनी हालात दे रहे हैं कुछ और ही गवाही…

locationगुनाPublished: May 03, 2019 05:23:02 pm

जीत को एकतरफा कराने के लिए जोड़ तोड़!

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कांग्रेस ने निर्विरोध जीत की बनाई ये रणनीति, लेकिन अंदरुनी हालात दे रहे हैं कुछ और ही गवाही!

गुना। मध्यप्रदेश में इस बार गुना लोकसभा सीट से कांग्रेस कुछ बड़ा करने की कोशिश में है। ऐसे में चर्चा है कि कमलनाथ सरकार के दो मंत्री यहां से बीजेपी प्रत्याशी केपी यादव के संपर्क में हैं और उन्हें घर बैठाने की रणनीति पर काम कर हैं। जिससे इस सीट से वर्तमान सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया रिकार्ड मतों से जीत दर्ज कर सकें।

वहीं कांग्रेस की अंदरुनी स्थितियां कुछ ओर ही कहानी कहती नजर आ रही है। जानकारों के अनुसार अब तक कांग्रेस में चल रहीं नेताओं की आवाजाही कांग्रेस में अब भी गुटीय स्तर पर चल रही राजनीति का आइना दिखाती दिख रहीं हैं।

Jyotiraditya scindhia

जिसमें एक खास गुट जहां सिंधिया को हावी होने से रोकता दिख रहा है,वहीं सिंधिया की ओर से भी कुछ ऐसे नेताओं को कांग्रेस में एंट्री कराई गई, जो विपक्षी गुट के लिए परेशानी का विषय बने हुए हैं।

इससे पहले 2014 में मोदी लहर के बावजूद सिंधिया ने ढाई लाख वोटों से एक तरफा जीत हासिल की थी। माना जाता है कि इसी कारण उनके खिलाफ बीजेपी का कोई बड़ा नेता चुनाव नहीं लड़ना चाहता था।

दरअसल, सिंधिया खेमे के भरोसेमंद माने जाने वाले कांग्रेस नेता इस बार अपने नेता की जीत को एकतरफा कराने के लिए जोड़ तोड़ में लग गए हैं। इसी के चलते कैबिनेट मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर बसपा प्रत्याशी को सिंधिया के समर्थन में बैठाकर कांग्रेस की सदस्यता दिला चुके हैं।

ऐसे में अब सीधा मुकाबला यहां बीजेपी और कांग्रेस के बीच होता दिख रहा है। मीडिया रिपोर्ट में इस बात का दावा किया जा रहा है कि बीजेपी प्रत्याशी केपी यादव के पिता कांग्रेस के कट्टर नेता रहे हैं। इसके चलते केपी भी कांग्रेस के खास सिपाही रहे हैं।

 

kamalnath

ऐसे में मुंगावली में हुए उप चुनाव के समय तक वह कांग्रेस में रहे। विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं मिला और उन्होंने बीजेपी ज्वाइन कर ली, और फिर चुनाव भी लड़ा लेकिन वह हार गए।

कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि गुना से ढाई लाख ज्यादा वोट से जीतने वाले सिंधिया के खिलाफ भाजपा का कोई नेता चुनाव लड़ने को राजी नहीं था। ऐसे में केपी यादव को औपचारिकता के लिए टिकट दे दिया गया। वहीं सूत्रों की मानें तो केपी यादव को कांग्रेस के दो कैबिनेट मंत्री अपने भरोसे में ले रहे हैं।

वहीं सूत्रों के अनुसार कांग्रेस की इस रणनीति के सामने आते ही भाजपा तक भौचक्के रह गए !

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चर्चा में ये: कुछ तो गड़बड़ है कांग्रेस के अंदर…
वहीं दूसरी ओर सिंधिया को लेकर कांग्रेस में कुछ तो गड़बड़ है कि चर्चा भी लगातार बनी हुई है। इस संबंध में राजनीति के जानकार डीके शर्मा कहते हैं कि सिंधिया परिवार पर सर्वाधिक अप्रिय भाषण करने वाले पुराने बसपाई फूल सिंह बरैया को कांग्रेस के ही सिंधिया विरोधी डॉ. गोविंद सिंह ने कांग्रेस में शामिल करा दिया।

वहीं इसके जवाब में कांग्रेस की पूरी ठाकुर लॉबी के शत्रु माने जाने वाले राकेश चौधरी को सिंधिया ने अपने मंच से कांग्रेस में शामिल कर लिया। जिसके चलते अंदरुनी तौर पर लगता है कि कांग्रेस के लिए ग्वालियर(जिसमें गुना अशोक नगर भी शामिल हैं)- चंबल संभाग जंग का मैदान बन गया है।


जानकारों की मानें तो मप्र में ये आपसी खींचतान, कांग्रेस के लिये चिंता का सबब बन गई है हालात यह है कि अब भी राजा औऱ महाराजा की लड़ाई खुलकर सामने दिख रही है। इस बार अंचल की 4 में से 2 सीटों पर केंडिडेट सिंधिया की खुली असहमति औऱ विरोध के बाबजूद दे दिए गए है।

जिनमें भिंड में जिस देबाशीष जरारिया को कांग्रेस का टिकट दिया गया है, जबकि कहा जाता है कि जरारिया को टिकट देने के लिये सिंधिया ने वीटो लगा रखा था, लेकिन दिग्विजय सिंह और सीएम के दबाब में जरारिया टिकट हासिल करने में कामयाब रहे।


जबकि वहीं सूत्रों के मुताबिक सिंधिया चाहते थे कि बीजेपी से मुरैना के मेयर औऱ पूर्व सांसद अशोक अर्गल को भिंड की सुरक्षित सीट से टिकट दिया जाए। यहीं उनकी दूसरी पसंद मुरैना के पूर्व सांसद बारेलाल जाटव थे जिन्हें महल का विश्वास पात्र माना जाता है।


लेकिन सिंधिया की दोनों पसंद को दरकिनार कर टिकट बसपा में सक्रिय रहे देवाशीष को दे दिया गया। इस मामले में भी कमलनाथ सरकार के सहकारिता मंत्री डॉ. गोविंद सिंह ने बड़ी भूमिका निभाई जो सिंधिया के कट्टर विरोधी रहे हैं।

वही दूसरा मामला ग्वालियर सीट का है जहां से चौथी बार अशोक सिंह को कांग्रेस का टिकट मिला है, जबकि चर्चा है कि सिंधिया नहीं चाहते थे कि अशोक सिंह को टिकट मिले, वह सुनील शर्मा, मोहन सिंह राठौर में से किसी को चाहते थे।

अशोक सिंह मूलतः दिग्विजय सिंह खेमे से जुड़े माने जाते हैं, उनकी नजदीकियां कमलनाथ के अलावा अरुण यादव से भी रही हैं। वहीं उनके व्यापक सम्पर्क औऱ आर्थिक रुतबे से भी कांग्रेस में उनके विरोधी कम नही है।

सूत्रों के अनुसार उनका सिंधिया से छतीस का आंकड़ा दिग्विजय खेमे के कारण ही अकेला नहीं है सच्चाई यह है कि वे महल को 2007 औऱ 2009 के चुनाव में कड़ी टक्कर दे चुके है। मप्र में सरकार बनने के बाद से ही अशोक सिंह ने अपनी चुनावी तैयारी शुरू कर दी थी, उन्होंने इसी जमावट में मुरैना के कलेक्टर भरत यादव को ग्वालियर पदस्थ करा दिया जिसे लेकर सिंधिया ने कड़ी आपत्ति दर्ज कराकर दो महीने में ही ट्रांसफर करा दिया।

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लोकसभा चुनाव के मौसम में कई लोगों का भी मानना है ग्वालियर औऱ भिंड के टिकट विशुद्ध रुप से सिंधिया के खिलाफ जाकर दिए गए। जबकि मुरैना का टिकट पूर्व मंत्री रामनिवास रावत को सिंधिया कोटे से ही दिया गया है, लेकिन इस टिकट में एक बड़ा अंतर्विरोध खुद सिंधिया खेमे से जुड़ा है।

इस संसदीय सीट के 7 विधायक है और आधे से ज्यादा ने सिंधिया से रामनिवास को टिकट नहीं देने का आग्रह किया था।


इससे पहले 2009 में रामनिवास रावत एक लाख से ज्यादा वोट से नरेंद्र सिंह तोमर से हार चुके है। हाल ही वे अपनी विजयपुर सीट से चुनाव हारे हैं। ऐसे में यहां उनका जातीय गणित भी बहुत सशक्त नजर नहीं आता है, वहीं श्योपुर के विधायक बाबू जंडेल मीणा उनके खिलाफ हैं उनका एक वीडियो भी हाल ही में वायरल हुआ है, जिसमें वे रामनिवास के विरुद्ध टिप्पणी कर रहे है।

इधर, सुमावली के विधायक एदल सिंह कंसाना सिंधिया के विरुद्ध खुलकर बोलते रहे है। उन्होंने सार्वजनिक रूप से मंत्री नहीं बनाये जाने के लिये सिंधिया को जिम्मेदार बताया था। उनकी नाराजगी बढ़ाने का काम सिंधिया की ओर से व्रंदावन सिंह सिकरवार औऱ उनके बेटे मानवेन्द्र गांधी को कांग्रेस में शामिल कराके किया है।

दोनों रामनिवास के नामांकन जुलूस में शामिल हुए, जबकि 1993 से लगातार एडल सिंह का चुनावी मुकाबला सिकरवार परिवार से हो रहा है। वहीं इस विधानसभा चुनाव में कंसाना मानवेन्द्र गांधी को हराकर ही विधायक बने है। इन दोनों परिवारों में राजनीतिक मतभेद दुश्मनी के स्तर तक है।

यह वहीं व्रंदावन सिकरवार है जिन्होंने 2014 में मुरैना से लोकसभा का चुनाव बसपा के टिकट पर लड़ा था जिसके कारण काँग्रेस केंडिडेट डॉ गोविंद सिंह तीसरे नम्बर पर पहुंच गए।

वहीं कहा जाता है कि कांग्रेस राजनीति में डॉ. गोविंद सिंह के खिलाफ व्रंदावन सिकरवार को बसपा से लड़ाने के पीछे सिंधिया की सहमति थी। क्योंकि सिकरवार मूलतः सिंधिया से जुड़े रहे हैं और डॉ गोविंद सिंह से सिंधिया के बीच छतीस का आंकड़ा जगजाहिर है।

राजा खेमे के लोग 2014 में डॉ. गोविंद सिंह की हार को भुलाने के लिये तैयार नही है। वहीं भिंड की सीट पर भी दोनों खेमे आमने सामने है, सिंधिया ने अपनी नामंकन रैली में पूर्व मंत्री चौधरी राकेश सिंह को कांग्रेस ज्वाइन करा दी।

जिसे लेकर राजा खेमे में तीखी प्रतिक्रिया है क्योंकि राकेश सिंह दिग्विजय औऱ अजय सिंह पर गंभीर आरोप लगाकर बीजेपी में शामिल हुए थे। वहीं भिंड की राजनीति में ठाकुर बनाम ब्राह्मण का ट्रेन्ड अभी भी बरकरार है और राकेश चौधरी को जिस तरह कांग्रेस में शामिल किया गया है उसे लेकर डॉ. गोविन्द सिंह सहज नहीं हैं।

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