सरकार ने जमीन दी लेकिन एनआरसी में नाम नहीं
अपने इस सफर के बारे में बात करते हुए चौधुरीपाड़ा के रासेंद्र हाजोंग (59) कहते हैं कि वे 1964 में अविभाजित असम में पूर्वी पाकिस्तान के सिलहट से अपनी दादी के साथ आए थे। हम अभी के राज्य मेघालय के तुरा से प्रवेश कर असम आए थे। ग्वालपाड़ा के माटिया में सरकार ने शरणार्थियों को बसाया था। कुछ सालों बाद हमें कामरूप के बामुनीगांव स्थित पारमानेंट लाइबिलीट होम में भेज दिया गया। बाद में पुर्नवास योजना के तहत सरकार ने शरणार्थियों को जमीन आवंटित की। हाजोंग कहते हैं कि हम दशकों से मतदान कर रहे हैं। हमारे पास सरकार द्वारा दी गई जमीन है, लेकिन पहले एनआरसी के प्रारूप और अंतिम एनआरसी प्रारूप में हमारा नाम न देखकर हमें हैरत हुई। हमने कभी अपने को बाहरी नहीं समझा। इन मामले पर कामरूप के जिला उपायुक्त कमल वैश्य का कहना था कि यदि वे 1971 के पहले आने के कागजात हमें दे सकें, तो उनके नाम एनआरसी में शामिल होंगे।
कागजात कर दिए खारिज
एक अन्य शरणार्थी अनिल चंद्र चंदा ने कहा कि उनके पास शरणार्थी प्रमाण पत्र है, जिसमें छह लोगों के 1967 में आने का उल्लेख है। अन्य लोगों की तरह ही चंदा को शिलचर के चंद्रनाथपुर से लाकर यहां के पारमानेंट लाइबिलीट होम में रखा गया था। सरकार प्रायोजित पुनर्वास कार्यक्रम के बाद भी हमारी स्थिति अनिश्चय से भरी रही। हमने जरूरी कागजात एनआरसी के लिए दिए, लेकिन वे अधिकारियों को स्वीकार्य नहीं हुए। चंदा कहते हैं कि शरणार्थी प्रमाण पत्र एनआरसी में नाम शामिल करने के लिए पर्याप्त नहीं है, तो क्या हम बिना राज्य के हो जाएंगे। मालूम हो कि एनआरसी के लिए कट ऑफ ईयर 24 मार्च 1971 है। यहां रहनेवाले शरणार्थी इसके पहले आए हैं। उपायुक्त वैश्य कहते हैं कि शरणार्थियों को चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। वे दावे और शिकायतें दर्ज करा पाएंगे, लेकिन इलाके में रहनेवाले युवा मतदाता सुभाष बर्मन का कहना है कि अधिकारी पुराना रिकार्ड ही बजा रहे हैं। इनका रटा-रटाया जवाब है कि चिंता मत करिए।