पहले बात ग्वालियर सीट की। यहां टिकट फाइनल करने में इतना समय लिया गया कि लगा भाजपा पहले कांग्रेस की चाल देखना चाहती है। कांग्रेस ने प्रियदर्शिनी सिंधिया का नाम चलाया फिर भी भाजपा ने जब विवेक शेजवलकर को टिकट दिया तो अधिकांश लोगों को यही लगा कि गुना-शिवपुरी सीट की तरह वॉकओवर देने की तैयारी है। जी हां, आजादी के बाद पहली बार गुना सीट पर सिंधिया राजपरिवार को हराने वाले केपी यादव के जीतने की किसी ने कल्पना ही नहीं की थी। वहां टोह लेने गए चुनाव विशेषज्ञ सिर्फ सिंधिया के जीत के अंतर की बात ही करते रहे। पहली बार जब 19 मई को आए एग्जिट पोल में मध्यप्रदेश में कांग्रेस की 1 से 3 सीट की संभावना दिखाई गई तो झट से पोल को झूठा करार दिया गया। सबने यही पूछा- सिंधिया कैसे हार जाएंगे… एग्जिट पोल तो होते ही अविश्वसनीय हैं… वगैरह-वगैरह।
4 साल के महापौर कार्यकाल की एंटी इंकम्बेंसी का सामना कर रहे विवेक शेजवलकर का प्रचार अभियान कभी भी तूफानी गति नहीं पकड़ पाया। वैसे भी ग्रामीण मतदाताओं के बीच अपरिचित से थे। जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार अशोक सिंह की पकड़ ही ग्रामीण क्षेत्र में थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में अशोक ने ग्रामीण अंचल की 4 विधानसभा सीटों में नरेंद्र सिंह तोमर को हराया था। फिर 2018 के विधानसभा चुनाव में भी ग्वालियर ग्रामीण को छोडकऱ कांग्रेस ने बाकी 7 सीटों पर भाजपा का सफाया कर दिया था। संभवत: इसी के चलते भाजपा दिग्गज नरेंद्र सिंह तोमर को अपनी सीट बदलनी पड़ी थी। वैसे अशोक सिंह की मुश्किलें कम नहीं थीं। कांग्रेस की गुटबाजी, जातीय गणित और स्टार प्रचारक ज्योतिरादित्य सिंधिया की यहां कम उपस्थिति ने शेजवलकर की राह आसान कर दी।
एट्रोसिटी एक्ट की नाराजगी और भाजपा की आपसी अंतर्कलह ग्वालियर सीट को असुरक्षित बना रहे थे। सिटिंग मेयर को टिकट देते ही स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट की नाकामी, शहर में उल्लेखनीय कार्य न होने की नाराजगी के भी बड़ा मुद्दा बनने का खतरा था, फिर भी पार्टी ने ये खतरा उठाया और जीते भी। खुद शेजवलकर ने चुनाव प्रचार के दौरान बार-बार यही बात कही- ये चुनाव स्थानीय नहीं मोदी और राहुल फैक्टर के बीच हो रहा है। इसीलिए ग्वालियर में मोदी की एक जनसभा होते ही वे जीत को लेकर आश्वस्त हो गए। जबकि मोदी की सभा के बाद कांग्रेस ने जोरदार काउंटर अटैक किया। सभा लेने राहुल गांधी आए। राहुल ने बेरोजगारी का मुद्दा उठाया। ग्वालियर की सैकड़ों फैक्ट्रियां बंद हो जाने की बात की। यहीं कमलनाथ के मोबाइल से देखकर कर्जमाफी पाए किसानों की लिस्ट में शिवराज चौहान के भाई और भतीजे का नाम पढऩे का रोचक प्रसंग भी आया। अगले ही दिन से पूरी भाजपा डिफेंसिव मोड में आ गई, फिर भी 4 दिन बाद 12 मई को मतदाता चुपचाप ईवीएम पर लिख आए- आएगा तो मोदी ही।