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अपने आत्मस्वरूप को जानने का पुरूषार्थ करें

locationग्वालियरPublished: Nov 09, 2019 10:41:58 pm

Submitted by:

Narendra Kuiya

– मुरार स्थित जैन मंदिर में बोले मुनि अविचल सागर

अपने आत्मस्वरूप को जानने का पुरूषार्थ करें

अपने आत्मस्वरूप को जानने का पुरूषार्थ करें

ग्वालियर. मनुष्य सारा जीवन भागों को भोगने तथा भोगों के साधनों को एकत्रित करने में गंवा देता है, अपने मुख्य लक्ष्य से भटक जाता है, भोग तो हमने अनन्त भवों से भोगें है और भोगते रहेंगे इन भोगों से हमारी आत्मा को नहीं बल्कि इस नश्वर शरीर को क्षणिक सुख मिलता है, यह मानव जीवन हमें अपने कर्मों का नाश कर आत्मकल्याण के लिये मिला है, हम अपने आत्मस्वरूप को जानने का पुरूषार्थ करें, अपना जीवन धर्ममय बनाऐं तभी मानव जीवन की सार्थकता होगी। यह बात शनिवार को जैन मुनि अविचल सागर जी ने मुरार स्थित जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए कही।
दैहिक हिंसा के साथ वैचारिक हिंसा पर भी हो अंकुश
जैन मुनि ने कहा कि जीवन में प्रत्येक क्षण हम अपने भावों को संभालने का प्रयास करें क्योंकि भावों की महिमा अपरंपार होती है। यहां तो किसी जीव को मारना ही हिंसा नहीं बल्कि किसी जीव को मारने के भाव भी आ गये उसे भी हिंसा माना गया है। भगवान महावीर स्वामी ने कहा है कि दैहिक हिंसा से भी बुरी है वैचारिक हिंसा, क्योकि दैहिक हिंसक व्यक्ति को तो पहचानना फिर भी आसान है, लेकिन वैचारिक हिंसा वाले को पहचानने में चूक हो सकती है। विचारों को पवित्र बनाकर अपने जीवन को सार्थक बनाओ ।
सत्संग और सद साहित्य से मिलती है वैचारिक प्रदुषण से मुक्ति
जैन मुनि अविचल सागर ने बताया कि तपस्वियों के चरण जंगल में पड़े या महलों में, वह स्थान तपोवन हो जाता है। जंगल कभी तपोवन नहीं बने, तपस्वियों की तपस्या ने उन्हें तपोवन बनाया है। भगवान महावीर ने मात्र दैहिक तपस्या को व्यर्थ माना है, जब तक उसमें वैचारिक तपस्या न जुड़ी हो, वैचारिक शुद्वि होती है सत्संग से, आज देश में वैचारिक प्रदूषण इतनी तेजी से फैल रहा है, इससे मुक्ति का मार्ग सत्संग और सदसाहित्य है।
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