मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी…
बुझा दीप झांसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झांसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झांसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
बचपन से जो पढ़ा , उसे भुला दें या फिर शिलालेख हटा दें…
शिलालेख में कहीं भी भारत के स्वाधीनता संग्राम या आजादी के संघर्ष का उल्लेख नहीं किया गया है। अंतिम पंक्ति में ह्यू रोज को ‘सर’ संबोधित करते हुए लिखा है कि मध्य भारत के प्रसिद्ध अंग्रेज सेनापति ह्यू रेज थे, उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के संंबंध में कहा था कि शत्रु दल में सबसे योग्य नेता झांसीवाली रानी थी।
गलत इतिहास वाले शिलालेख को बदलेंं
यदि रानी लक्ष्मीबाई का अंग्रेजों से मित्रतापूर्ण व्यवहार होता तो फिर वे उनसे युद्ध ही क्यों करती। इसके साथ-साथ जिसे सैनिक विद्रोह बताया गया है वह तो हमारा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। इसे सैनिक विद्रोह तो अंग्रेज कहा करते थे। इस शिलालेख पर लिखा हुआ इतिहास ठीक नहीं है इसे बदला जाना चाहिए।
रामसेवकदास महाराज, महंत, गंगादास की बड़ी शाला
कांग्रेस सरकार के समय का विकृत इतिहास है ये
ये आजादी के प्रारंभिक काल में कांग्रेस सरकारों के समय का विकृत इतिहास है। लक्ष्मीबाई की असली कहानी और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को नेहरू काल में सैनिकों का गदर लिखा गया, पर सावरकर द्वारा लिखा प्रथम स्वतंत्रता का इतिहास इसे ही क्रांति मानता है। स्मारक राज्य पुरातत्व विभाग का है उसे ध्यान देना चाहिए।
जयभान सिंह पवैया, अध्यक्ष, रानी लक्ष्मीबाई बलिदान मेला समिति