ग्वालियर

मौत के बाद भी इस संगीतज्ञ के गायन पर हरकत में आए थे संगीत सम्राट तानसेन,ऐसे चुना गया संगीत विरासत का वारिस

तानसेन की आयु करीब 80 वर्ष हो चली थी। इसी बीच वे बीमार पड़े। उन्हें यक्ष्मा रोग हो गया। बादशाह उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए आगरा ले आए।

ग्वालियरDec 22, 2017 / 07:25 pm

shyamendra parihar

ग्वालियर। तानसेन की आयु करीब 80 वर्ष हो चली थी। इसी बीच वे बीमार पड़े। उन्हें यक्ष्मा रोग हो गया। बादशाह उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए आगरा ले आए। तानसेन ग्वालियर जाने को बैचैन हो उठे, लेकिन वैद्यों को भय था कि मार्ग में ही उनकी मृत्यु हो सकती है। बादशाह ने तानसेन से ग्वालियर जाने का संकल्प त्यागने का अनुरोध किया।
 

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तानसेन की आंखों से अश्रुधारा बह चली। बोले, खुदाबंद! और क्या देख रहे हैं? मेरा अंतकाल समागत है। यदि मुझे ग्वालियर नहीं जाने दे रहे तो मेरी इच्छा है कि मेरी समाधि वहीं हो। …वहीं बादशाह के सामने तानसेन ने अंतिम गान गाया। बच्चों की तरह रो पड़े बादशाह।

इसके बाद तानसेन ने अपने चारों पुत्रों और शिष्यों को बुलाया। बोले, मैं अब संसार से विदा हो रहा हूं। तुम लोगों ने मुझसे जो संगीत साधना पाई है, मेरा आशीर्वाद है कि मेरी मृत्यु के बाद यह दैवप्रभावपूर्ण संगीत तुममें अमर रहे। मेरी मृत्यु के बाद मेरी मृत देह बीच में रखकर गायन करना। जिसके गान से मेरी मृत देह का दक्षिण हाथ उठेगा, उसी के वंशक्रम से मेरी संगीत साधना जाज्वल्यमान रहेगी। इस अंतिम वाणी के साथ ही तानसेन की आत्मा उनकी नश्वर देह को त्याग गई।

तानसेन के निधन के बाद उनके पुत्र, भक्त, शिष्य और अन्य सााधक उनकी मृत देह के चारों और बैठकर एक-एक कर गाने लगे। कुछ यूरोपीय राजदूत भी इस घटना के वक्त वहां मौजूद थे। कई लोग गा चुके, लेकिन कुछ नहीं हुआ। अंत में तानसेन के कनिष्ठ पुत्र बिलास खां ने गायन शुरू किया। उन्होंने तोड़ी रागिनी में धु्रपद गाया- कौन भ्रम भुलाए मन अज्ञानी…! अचानक तानसेन की मृत देह का दाहिना हाथ उत्थित हो गया। सब विस्मृत थे। बिलास खां को तानसेन की साधना का उत्तराधिकारी स्वीकार किया गया।

न हुआ और न होगा संगीत का ऐसा नबी
ल खनऊ के प्रसिद्ध ठाकुर ने अपनी संगीत विषयक पुस्तक ‘मआरिफुन्नगमातÓ के द्वितीय खंड की भूमिका में लिखा है, ”आधुनिक गान विद्या किसी संगीत-पुस्तक के अनुसार नहीं है। जो विराज आज प्रचलित है, उसका प्रमाण कहीं मिल सकता है तो तानसेन के खानदान से। …आजकल राग-रागिनी के जिस रूप से हम परिचित हैं वह रूपान्तरण से बनी है।
उसने आधुनिक रूप धारण किया है। इसमें जिनकी प्रेरणा का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है वे तानसेन के अलावा और कोई नहीं हैं। संगीत के वर्तमान युग को तानसेन का युग कहा जा सकता है।
 

उनके गुरु स्वामी हरिदास देवर्षि नारद के अवतार थे। उनकी सृष्टि भगवत् पदारविन्द में अंजलि देने के लिए थी, तानसेन ने उस सृष्टि के उत्स से एक धारा जगत् की ओर प्रवाहित कर दी। …अबु फजल के इतिहास से पता चलता है कि तानसेन के जन्म के पूर्व एक हजार वर्ष में उनके समान गुणी और संगीत स्रष्टा का जन्म नहीं हुआ। …अबु फजल की धारणा थी कि संगीत का ऐसा नबी संभवत: दुनिया में और कभी आविर्भूत नहीं होगा।”

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