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आजादी के इस दीवाने की शहादत का गवाह है शहर

locationग्वालियरPublished: Aug 13, 2016 05:19:00 pm

Submitted by:

rishi jaiswal

1857 का विद्रोह कुचल दिए जाने के बाद भी एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ तात्या टोपे ने अंग्रेज़ सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के विरुद्ध एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। 

tatya tope, hero of india

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ग्वालियर। आजादी की जंग के महान सेनानायकों में शामिल तात्या तोपे किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। भले ही 1857 ई. तक लोग तात्या टोपे के नाम से अपरिचित थे, लेकिन 1857 के विद्रोह ने उन्हें अचानक अंधकार से प्रकाश में ला खड़ा किया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शुरू होने से पहले वे राज्यच्युत बाजीराव द्वितीय के सबसे बड़े पुत्र बिठूर के राजा नाना साहब के एक प्रकार से साथी-मुसाहिब मात्र थे, किंतु स्वतंत्रता संग्राम में कानपुर के सम्मिलित होने के बाद तात्या पेशवा की सेना के सेनाध्यक्ष की स्थिति तक पहुंच गए।
कर्नल माल्सन ने उनके संबंध में कहा है कि “भारत में संकट के उस क्षण में जितने भी सैनिक नेता उत्पन्न हुए, वह उनमें तात्या सर्वश्रेष्ठ थे। वहीं सर जॉर्ज फॉरेस्ट ने कहा है कि “वह विश्व के प्रसिद्ध छापामार नेताओं में से एक थे।” तात्या ने कई बार ग्वालियर-चंबल संभाग में अंग्रेजों से युद्ध करते हुए अपनी वीरता का लोहा दिखाया, ग्वालियर सदैव ही आजादी के इस दीवाने की वीरता का गवाह बना रहा।


सन् 1857 के विद्रोह में झांसी की रानी और तात्या टोपे का अपना ही स्थान है। तात्या के साहसपूर्ण कार्य और विजय अभियान किसी से कम रोमांचक नहीं थे। विद्रोह के समय तात्या टोपे एक विशाल राज्य के समान कानपुर, राजपूताना और मध्य भारत तक फैल गए थे। कर्नल ह्यूरोज ने मेजर मीड को लिखे एक पत्र में तात्या टोपे के विषय में कहा था कि “वह भारत युद्ध नेता और बहुत ही विप्लवकारी प्रकृति के थे और उनकी संगठन क्षमता भी प्रशंसनीय थी।” तात्या ने शक्तिशाली ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया था। उन्होंने शत्रु के साथ लंबे समय तक संघर्ष जारी रखा। जब स्वतंत्रता संघर्ष के सभी नेता एक-एक करके अंग्रेज़ों की श्रेष्ठ सैनिक शक्ति से पराभूत हो गए तो वे अकेले ही विद्रोह की पताका फहराते रहे। उन्होंने लगातार नौ माह तक उन आधे दर्जन ब्रिटिश कमांडरों को छकाया जो उन्हें पकडऩे की कोशिश कर रहे थे। तात्या टोपे अंत तक अपराजेय ही बने रहे।



फिरंगी अंग्रेज़ों के दांत खट्टे कर दिये
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान तात्या टोपे भी इस रण में कूद पड़े। उन्होंने उत्तरी भारत में शिवराजपुर, कानपुर, कालपी और ग्वालियर आदि अनेक स्थानों में अंग्रेज़ों की सेनाओं से कई बार लोहा लिया। सन 1857 के स्वातंत्रय योद्धाओं में वही ऐसे तेजस्वी वीर थे, जिन्होंने विद्युत गति के समान अपनी गतिविधियों से शत्रु को आश्चर्य में डाल दिया था। उन्होंने पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के सैनिक अभियानों में फिरंगी अंग्रेज़ों के दांत खट्टे कर दिये थे। 
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कानपुर के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया, तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज़ सेना ने कानपुर पर हमला किया, जी-जान से लडऩे के बावजूद तात्वा कोद16 जुलाई, 1857 को पराजय के बाद कानपुर छोडऩा पड़ा। इसके बाद बिठूर में भी उन्हें अंग्रेजों से पराजित होना पड़ा, परंतु उनके नेतृत्व में भारतीय सैनिकों की बहादुरी देखकर अंग्रेज़ सेनापति को भी उनकी प्रशंसा करनी पड़ी।

20 हज़ार सैनिकों के साथ पहुंचे मदद के लिए
तात्या पराजय से विचलित न होते हुए बिठूर से राव साहेब सिंधिया के इलाके में पहुंचे। वहां वे ग्वालियर कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकड़ी को अपनी ओर मिलाने में वे सफल रहे। वहां से वे एक बड़ी सेना के साथ कालपी पहुंचे। नवम्बर 1857 में उन्होंने कानपुर पर आक्रमण किया। जिससे यहां की अंग्रेज़ सेना तितर-बितर होकर भागने लगी, परंतु यह जीत थोड़े समय के लिए रही। यहां से तात्या खारी चले गए और वहां उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए, जो सेना के लिए जरूरी थे। इसी बीच 22 मार्च को सर ह्यूरोज ने झांसी पर घेरा डाला। ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब बीस हज़ार सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मीबाई की मदद के लिए पहुंचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंतत: रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद कालपी पहुंचे। इस युद्ध में तात्या टोपे को एक बार फिर ह्यूरोज के विरुद्ध पराजय देखनी पड़ी। बाद में ग्वालियर में फूलबाग़ के पास ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना से युद्ध करते हुए रानी लक्ष्मीबाई 17 जून, 1858 को शहीद हो गयीं।


इसके बाद का तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा है। लगभग सब स्थानों पर अंग्रेजो द्वारा विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज़ सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के विरुद्ध एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। इस छापेमार युद्ध से उन्होने अंग्रेज़ी खेमे में तहलका मचा दिया। तत्कालीन अंग्रेज़ लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि- “हज़ारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोड़ों को दौड़ाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडऩे में कभी सफलता नहीं मिली।”



उफनती चंबल करली पार
ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या ने चम्बल नदी पार की, वे पहले जयपुर और उदयपुर पर अधिकार करने चाहते थे, लेकिन मेजर जनरल राबर्ट्स वहां पहले से ही पहुंच जाने से तात्या को वापस लौटना पड़ा। रॉबर्ट्स ने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा। भीलवाड़ा से आगे कंकरोली में तात्या की अंग्रेज़ सेना से जबर्दस्त मुठभेड़ हुई। पराजय के बाद तात्या पूर्व की ओर भागे, ताकि चम्बल पार कर सकें। इस समय अगस्त महीने में चम्बल नदी काफ़ी तेज प्रवाह से बह रही थी, लेकिन निडर तात्या ने बाढ़ में ही चम्बल नदी पार कर ली और झालावाड़ की राजधानी झालरापाटन पहुंच गए। यहां झालावाड़ के परस्थ शासक से तात्या ने अंग्रेज़ सेना के देखते-देखते लाखों रुपये वसूल किए और 30 तोपों पर अधिकार कर लिया। 

बम्बई प्रांत का गर्वनर घबराया
इसके बाद नर्मदा पार कर दक्षिणी क्षेत्र में प्रवेश करके तात्या ने अंग्रेज़ों के दिलों में दहशत पैदा कर दी। नागपुर क्षेत्र में तात्या के पहुंचने से बम्बई प्रांत का गर्वनर एलफिन्सटन तक घबरा गया। वहीं उनके दक्षिण में आने की जानकारी से मद्रास प्रांत में भी घबराहट फैल गई। यहां से तात्या अपनी सेना के साथ पंचमढ़ी की दुर्गम पहाडिय़ों को पार कर छिंदवाड़ा के जमई गांव और फिर 7 नवम्बर को मुलताई पहुंच गये। मुलताई के देशमुख और देशपाण्डे परिवारों के प्रमुख और अनेक ग्रामीण उनकी सेना में शामिल हो गये, परंतु तात्या को यहां अपेक्षा के मुताबिक जन समर्थन नहीं मिला। तात्या असीरगढ़ पहुंचना चाहते थे, परंतु वहां कड़ा पहरा था। तो खण्डवा से वे खरगोन होते हुए मध्य भारत वापस चले गये। खरगोन में खजिया नायक अपने 4000 अनुयायियों के साथ तात्या टोपे के साथ जा मिला।


1859 में हुए शहीद
इन्दरगढ़ में तात्या टोपे को नेपियर, शाबर्स, समरसेट, स्मिथ, माइकेल और हार्नर नामक ब्रिगेडियर सहित कई अंग्रेज़ सैनिक अधिकारियों ने हर एक दिशा से घेर लिया। बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। अंग्रेज़ों के इस कठिन और असंभव घेरे को तोड़कर वे जयपुर की ओर भागे। देवास और शिकार में उन्हें अंग्रेज़ों से पराजित होना पड़ा। ऐसे में उन्हें परोन के जंगल में शरण लेने पड़ी। कहा जाता है कि परोन के जंगल में तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेज़ों से मिल गया और उसकी गद्दारी के कारण तात्या टोपे 8 अप्रैल, 1859 को सोते समय में पकड़ लिए गये।


लोगों के मुताबिक अंग्रेज़ों ने धोखा करके तात्या को पकड़ा था। बाद में अंग्रेज़ों ने उन्हें फ़ांसी पर लटका दिया, लेकिन कुछ जानकारों के मुताबिक फ़ांसी पर लटकाया जाने वाला कोई दूसरा व्यक्ति था, तात्या टोपे नहीं। असली तात्या टोपे तो स्वतन्त्रता संग्राम के कई वर्ष बाद तक जीवित रहे। ऐसा कहा जाता है कि 1862-1882 ई. की अवधि में स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी तात्या टोपे ‘नारायण स्वामीÓ के रूप में गोकुलपुर, आगरा में स्थित सोमेश्वरनाथ के मन्दिर में कई महीने रहे। भारत में 1857 ई. में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता तात्या टोपे के बारे में इतिहासकार कहते हैं कि उन्हें 18 अप्रैल, 1859 में फ़ांसी दी गयी थी।

टोपे मात्र उपनाम
तात्या टोपे का जन्म सन 1814 ई. में नासिक के निकट पटौदा जिले में येवला नामक ग्राम में हुआ था। उनका वास्तविक नाम ‘रामचंद्र पांडुरंग येवलकर’ था। ‘तात्या’ मात्र उपनाम था। तात्या शब्द का प्रयोग अधिक प्यार के लिए होता था। टोपे भी उनका उपनाम ही था, जो उनके साथ ही चिपका रहा। माना जाता है कि तात्या अपने पिता की 12 संतानों में से दूसरे थे। उनका एक सगा और छह सौतेले भाई और चार बहनें थीं। 

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