नियमित अभ्यास से होंगे निपुण पं. प्रधान ने बताया कि अजराड़ा घराने की वादन शैली में बांयें पर मींड का अत्यधिक महत्व है। वहीं लखनऊ घराने में लग्गी लड़ी विशेष रूप से बजाई जाती है। तबला वादन में स्पष्टता एवं माधुर्य उत्पन्न करने के लिए उन्होंने बताया कि विद्यार्थी दांये बांये के समन्वय के साथ बोलों का विलंबित लय में नियमित अभ्यास करें। उन्होंने कहा कि विद्यार्थियों को तबला सीखने के साथ-साथ वरिष्ठ कलाकारों के तबला वादन को अधिकतम सुनना चाहिए। कार्यक्रम का संचालन मनीष करवड़े ने किया।
इन्होंने लिया भाग ताल संवाद कार्यक्रम में प्रो. गौरांग भवसार, प्रो. राजेश केलकर, प्रो. अजय अष्टपुत्रे, लखनऊ से डॉ. मनोज मिश्रा, डॉ. अवधेश प्रताप सिंह, डॉ. राहुल स्वर्णकार, विभूति मलिक, राजेश भट, सुलेखा भट, चन्द्रहास, मनोज पाटीदार, नंदन हरलेकर, धैवत मेहता, शंकर कुचेकर, मनीष करवड़े, डॉ. संजय सिंह, ओमप्रकाश कटारे, संजय देवले, संतोष मुरूमकर, अब्दुल हमीद खान सहित अनेक शहरों के गायन, तबला विषय के विद्यार्थी, शोधार्थी एवं संगीत रसिक शामिल हुए।