आदिवासी विकासखंड कराहल में लगभग दो दर्जन गांव ऐसे हैं, जिनमें गुर्जर-मारवाड़ी परिवार निवास करते हैं और इनकी आजीविका पशुपालन पर ही निर्भर है। लेकिन ग्रीष्मकाल में इन क्षेत्रों में चारे-पानी का संकट हो जाता है। लिहाजा चारे-पानी के अभाव में अपने पशुओं को बचाने ये पशुपालक परिवार मार्च माह में पलायन कर जाते हैं और पहली बारिश के बाद लौटने लगते हैं। क्षेत्र के ग्राम गोरस, कलमी, पिपरानी, डोब, चितारा, बुढ़ेरा, खेरा,डाबली, झरेर, सिमरोनिया, खाड़ी, खूंटका, पातालगढ़, कोटागढ़, रानीपुरा, राहरौन आदि सहित अन्य कई गांवों के लगभग एक हजार परिवार न केवल श्योपुर क्षेत्र के बड़ौदा और राजस्थान के इलाकों में जाते हैं बल्कि उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के गंगा-जमुना नदी के किनारे वाले क्षेत्रों तक भी जाते हैं। यही वजह है कि इनके पीछे बस्तियां खाली पड़ जाती है, या केवल वृद्धजन घरों में दिखते हैं। हालांकि इस समस्या के समाधान के लिए ये पशुपालक हर दल और हर सरकार के समक्ष वर्षों से अपनी मांग रखते आ रहे हैं, लेकिन किसी ने नहीं सुना। हां, पानी के लिए के लिए क्षेत्र में छोटे छोटे स्टॉप डैम, चारे के लिए डिपो आदि के खोखले आश्वासन जरूर मिले हैं।
चारे-पानी के लिए जहां पशुपालक पलायन करते हैं, वहीं गंभीर समस्या है रोजगार के लिए पलायन। आदिवासी क्षेत्र कराहल और विजयपुर के ही लगभग 80 गांवों से हर साल फसल कटाई के लिए चेतुआ मजदूर के रूप में लगभग 10 हजार परिवार श्योपुर क्षेत्र के साथ ही राजस्थान की ओर पलायन करते हैं। हर साल फरवरी के अंत में इनका पलायन शुरू होता है और अप्रेल के दूसरे पखवाड़े में लौटने लगते हैं। हालांकि फसल कटाई के लिए होने वाला ये पलायन इन मजदूरों के लिए एक परंपरा सी बन गया है, लेकिन जब ये लौटते हैं तो इनके अधिकांश बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं, साथ ही अन्य बीमारियां बच्चों व मजदूरों को जकड़ लेती हैं।
सतीश चौहान, उपाध्यक्ष, 8 4 महापंचायत आदिवासी समाज कराहल
नंदा गुर्जर, अध्यक्ष पशुपालक गोरस
टुंडाराम लांगुरिया,आदिवासी नेता कराहल