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इस शहीद के परिवार पर इस तरह टूट पड़ा है दुखों का पहाड़, जानकर आप भी नहीं रोक पायेंगे आंसू

locationहनुमानगढ़Published: Jul 17, 2018 01:11:45 am

Submitted by:

rajesh walia

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शहीद

शहीद

हनुमानगढ़.

शहादत की कोई कीमत नहीं होती। कोई इसे चाहकर भी अदा नहीं कर सकता। मगर देश के लिए जान देने वालों के परिवार को रोजी-रोटी के लिए जद्दोजहद करनी पड़े तो सवाल उठना लाजिमी है। शहीद का परिवार आर्थिक संकट झेले तो ‘शहीदों के लिए लफ्फाजी व भाषणबाजी’ करने वाले हुक्मरानों पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। पीलीबंगा तहसील मुख्यालय से करीब 15 किलोमीटर दूर स्थित गांव पंडितांवाली के लाल भूपेन्द्रसिंह बैलाण का परिवार हुकूमत से मायूस दिखता है। कारगिल शहीद की वीरांगना को रोजी-रोटी के लिए दिहाड़ी मजदूरी तक करनी पड़ रही है। भूपेन्द्र सिंह चार बेटियां और बूढ़ी मां को पत्नी के सहारे छोड़कर मैदान-ए-जंग में चले गए और कभी लौटकर नहीं आए।
जिंदगी की गाड़ी खींचने का सार भार उनकी धर्मपत्नी सीमा बैलाण पर आ पड़ा। दिल के जख्म और दर्द को समेटते हुए वीरांगना ने मां के साथ-साथ पिता बनकर बेटियों की परवरिश शुरू की। मगर दोहरी भूमिकाओं में उनको दोहरे संकट झेलने पड़े, जो आज भी जारी हैं। बड़ी बात यह है कि ना केवल आर्थिक परेशानी इस परिवार को झेलनी पड़ी है बल्कि शहीद की प्रतिमा तथा पाठशाला के नामकरण तक के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
नहीं मिला कोई सहयोग

बकौल वीरांगना सीमा बैलाण, ‘चार बेटियां फौजी साहब मेरी गोद में छोड़कर चले गए। बच्चियों की बारहवीं कक्षा तक की शिक्षा के लिए तो सेना से छात्रवृत्ति मिली थी। मगर इसके बाद की शिक्षा के लिए किसी से कोई सहयोग नहीं मिला। पांच जनों का परिवार केवल पेंशन के भरोसे रहा। दो बेटियां परमजीत कौर व पूजा कौर बीएड व नर्सिंग का कोर्स कर रही हैं। उनकी मोटी फीस भरनी पड़ती है। अब तक केवल बड़ी बेटी वीरपाल कौर का विवाह किया है। उस पर भी लाखों रुपए खर्च हो गए। तीनों बेटियां विवाह के काबिल हो चुकी हैं। कई लाख रुपए तो उनके विवाह के लिए चाहिए। जबकि स्थिति यह है कि पेंशन के रुपए तो घर खर्च व उनकी पढ़ाई के लिए भी पूरे नहीं पड़ते थे। अब कुछ बरस पहले पेंशन में बढ़ोतरी से थोड़ी राहत मिली है। मगर आर्थिक संकट बरकरार है।
पांच बरस पहले सास की मौत के बाद जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ गई है। परिवार में भी फौजी साहब के दो छोटे भाई हैं। उनमें से एक तो पंजाब में परिवार के साथ रहकर मजदूरी कर परिवार चलाते हैं। जबकि दूसरे देवर उनके पास ही रहते हैं। जब उनको मजदूरी वगैरह नहीं मिलती तो उनका सहयोग भी करना पड़ता है। परिवार में केवल बड़ी बेटी वीरपाल कौर की क्लर्क की नौकरी लगी है, उसका विवाह हो चुका है। फौजी साहब की शहादत के बाद पांच लाख रुपए मिले थे। उनमें से चार लाख मेरे खाते में तथा एक लाख सास के खाते में आए थे। इसके बाद तहसीलदार पचास हजार रुपए का चेक देने आए थे। उसके बाद कोई सहायता राशि नहीं मिली।
नहीं पिघला किसी का दिल

वीरांगना सीमा बैलाण बताती हैं कि फौजी साहब की प्रतिमा गांव के सरकारी विद्यालय में लगवाने के लिए निरंतर संघर्ष कर रही हूं। कई दफा सेना, केन्द्र सरकार को ज्ञापन व पत्र भेज चुकी हूं। कहा जाता है कि खुद जमीन खरीदकर वहां प्रतिमा स्थापित करवा लो। ऐसा क्यों। हर गांव में शहीद की प्रतिमा विद्यालय में लगती है तो फौजी साहब की क्यों नहीं। करीब 18 साल से प्रतिमा लगवाने व विद्यालय का नाम फौजी साहब के नाम पर करने के लिए यहां-वहां भटक रही हूं। अब तक ना किसी नेता का और ना किसी सरकार का दिल पिघला है। मायूस सी होकर सीमा बैलाण कहती हैं कि मिलने को तो कई शहीद परिवारों को जमीन व पेट्रोल पम्प तक मिले हैं। मगर मेरी बच्चियों की तो दो साल से छात्रवृत्ति भी नहीं आई है। जमीन व पेट्रोल पम्प मिलने की तो बात ही छोडि़ए। मुझे तो मेरे घर की जमीन का पट्टा तक नहीं मिला है।
मां का कर रही सहयोग

शहीद भूपेन्द्रसिंह बैलाण की बेटी अमरजीत कौर ने दसवीं कक्षा तक पढ़ाई कर स्कूल छोड़ दिया और मां का हाथ बंटाने लगी। वह घर पर ही सिलाई तथा ब्यूटीशियन का काम कर मां का आर्थिक सहयोग कर रही है। पिता की शहादत के बाद अमरजीत को ऐसा मानसिक आघात लगा कि कई दिनों बीमार रही। उसकी पढ़ाई छोडऩे की वजह भी यही रही।
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