राजा महेंद्र प्रताप सिंह का जन्म 1 दिसम्बर 1886 को मुरसान के नरेश बहादुर घनश्याम सिंह के यहां हुआ था। लेकिन उन्हें हाथरस के राजा हरिनारायण सिंह ने गोद ले लिया था। राजा हरिनारायण की मृत्यु केे बाद 20 वर्ष की उम्र में राजा महेन्द्र प्रताप की ताजपोशी हो गई। लेकिन अंग्रेजी निजाम ने उन्हें राजा की उपाधि नहीं दी। चूंकि जनता उनकी बहादुरी और देशभक्ति का सम्मान करती थी, लिहाजा जनता ने उन्हें शुरुआत से ही अपना राजा माना और राजा साहब कहना शुरू कर दिया था।
राजा महेंद्र प्रताप सिंह बचपन से ही आजाद भारत का स्वप्न देखते थे, जिसको पूरा करने के लिए उन्होंने 31 वर्ष सात माह तक विदेश में रहकर आजादी का बिगुल बजाया। इस दौरान वे जर्मनी, स्विटरजरलैंड, अफगानिस्तान, तुर्की, यूरोप, अमरीका, चीन, जापान, रूस आदि देशों में घूमकर आजादी की अलख जगाते रहे। इस पर शासन ने उन्हें राजद्रोही घोषित कर उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली। उस समय भारत की आजादी के लिए हजारों देशभक्त अपनी जिंदगियां न्यौछावर कर रहे थे। जो जीवित बच जाते थे, उनको पीने के लिए पानी भी नसीब नहीं होता था। खाने के नाम पर कोड़े मिलते थे। अंग्रेजी हकूमत और देसी कारागार में उनको रात व दिन का पता भी नहीं चल पाता था। राजा महेंद्र प्रताप भी उन क्रांतिकारियों में से एक थे जिन्होंने देश की खातिर ऐसी तमाम यातनाएं सहीं।
विदेश में रहने के दौरान राजा महेन्द्र प्रताप, सुभाषचंद्र बोस से मिले और आजाद हिन्द फौज की नींव रखने में बड़ी भूमिका निभाई। विदेश में ही रहकर उन्होंने आजाद भारत की पहली सरकार का गठन किया जिसके राष्ट्रपति स्वयं बने। भारत के स्वतंत्र होने के बाद वे स्वदेश लौटे और आजाद भारत में लोकतंत्र ही आधारशिला में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। वर्ष 1979 में भारत सरकार ने राजा साहब नाम से डाकटिकट जारी की थी। यह स्पेशल टिकट संग्रहकर्ताओं के पास आज भी सुरक्षित है।
राजा महेन्द्र प्रताप शिक्षा के महत्व को अच्छे से समझते थे, लिहाजा उन्होंने उस समय देश को तमाम शैक्षिक संस्थाएं दीं, जब लोग शिक्षा व्यवस्था की जानकारी भी नहीं रखते थे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के निर्माण के लिए उन्होंने जमीन का बड़ा हिस्सा दान किया, जिसके बाद उस जमीन पर यूनिवर्सिटी का निर्माण हुआ। वहीं राजा साहब ने मथुरा-वृंदावन में सैकड़ों बीघा जमीन को सामाजिक संगठनों एवं शिक्षण संस्थानों को दान में दे दिया था।