प्रतिष्ठित ‘जर्नल ऑफ ट्रडिशनल एंड कंप्लीमेंट्री मेडिसिन’ के ताजा अंक में इस शोध को प्रकाशित किया गया है। इस दवा के करीब 50 फीसदी सेवनकर्ताओं में ग्लाइकोसिलेटेड हीमोग्लोबिन का स्तर नियंत्रित पाया गया। इसी की वजह से मधुमेह के मरीजों में दिल के दौरे के मामले सामने आते हैं। एलोपैथी की दवाएं ग्लूकोज को नियंत्रित करने में तो कामयाब होती हैं, लेकिन इससे जुड़ी दूसरी समस्याओं को काबू नहीं कर पातीं।
8 0 फीसदी मरीजों में ग्लूकोज हुआ काबू
शोध के दौरान 8 0 फीसदी तक मरीजों के ग्लूकोज के स्तर में कमी देखी गई। शोध के पहले ग्लूकोज का औसत स्तर 196 (खाली पेट) था जो चार महीने बाद घटकर 129 एमजीडीएल रह गया। जबकि भोजन के बाद यह स्तर 276 से घटकर 191 एमजीडीएल रह गया। इस तरह के नतीजे कई एलोपैथिक दवाएं भी देती हैं। यह शोध भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के दिशा-निर्देशों के तहत एक अस्पताल में किया गया। इस दौरान 6 4 मरीजों पर चार महीने तक इस दवा का परीक्षण किया गया।
एक दवा, दो फायदे
शोध में दूसरा नतीजा यह देखा गया कि 30.50 फीसदी मरीजों में इस दवा के सेवन से ग्लाइकोसिलेटेड हिमोग्लोबिन (एचबीए1सी) नियंत्रित हो गया। जबकि बाकी मरीजों में भी इसके स्तर में दस फीसदी तक की कमी आई थी। दरअसल, ग्लाइकोसिलेटेड हिमोग्लोबिन की रक्त में अधिकतता रक्त कोशिकाओं से जुड़ी बीमारियों का कारण बनती है। जिसमें हार्ट अटैक होना और दौरे पडऩा प्रमुख हैं। मधुमेह रोगियों में ये दोनों ही मामले तेजी से बढ़ रहे हैं।
ऐसे प्रभावित होता है मरीज
हिमोग्लोबिन लाल रक्त कोशिकाओं के भीतर होता है। इसका कार्य आक्सीजन का संचार करना होता है। लेकिन जब हिमोग्लोबिन में शर्करा की मात्रा घुल जाती है तो हिमोग्लोबिन का कार्य बाधित हो जाता है इसे ही ग्लाइकोसिलेटेड हिमोग्लोबिन कहते हैं। इसका प्रभाव कई महीनों तक रहता है। लेकिन इस शोध में पाया गया कि बीजीआर-34 से यह स्तर नियंत्रित हो रहा है।