scriptB Alert – हर साल 2,633 टन से ज्यादा एंटीबायोटिक खा रहे हैं भारतीय | B Alert - Indians eating more than 2 tonnes of antibiotic each year | Patrika News

B Alert – हर साल 2,633 टन से ज्यादा एंटीबायोटिक खा रहे हैं भारतीय

locationजयपुरPublished: Oct 15, 2018 04:35:19 pm

एंटीबायोटिक की खपत के लिहाज से हम दुनिया में चौथे नंबर पर पहुंच गए हैं, बड़ा एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस का खतरा

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B Alert – हर साल 2,633 टन से ज्यादा एंटीबायोटिक खा रहे हैं भारतीय

भारत में 2,633 टन से ज्यादा एंटीबायोटिक लोग हर साल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खा रहे हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक, पशु आहार में मिलाए जा रहे एंटीबायोटिक की वजह से मौजूदा एंटीबायोटिक का इंसान पर असर खत्म होने का खतरा पैदा हो गया है। इस समय भारत में ढाई हजार टन से ज्यादा एंटीबायोटिक हर साल जानवरों के चारे में मिलाया जा रहा है, जो अप्रत्यक्ष तरीके से इंसानी शरीर तक पहुंचता है। एंटीबायोटिक की खपत के लिहाज से हम दुनिया में चौथे नंबर पर पहुंच गए हैं। अगले 13 साल में यह उपयोग 80 फीसदी और बढऩे की आशंका है। ये शोध अंतरराष्ट्रीय जर्नल ‘साइंस’ में प्रकाशित होने वाला है। सितंबर, 2016 में संयुक्त राष्ट्र ने घोषित किया था कि एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस के खतरे का बड़ा कारण जानवरों में एंटीबायोटिक का प्रयोग है। इससे बचने के लिए वैज्ञानिकों ने मांसाहार कम करने, कानूनी रोक व टैक्स बढ़ाने का सुझाव दिया है।
ऐसे जानवरों से इंसान तक पहुंचता है एंटीबायोटिक
– एंटीबायोटिक से मिला हुआ चारा या दाना मुर्गे समेत अन्य जानवरों को खिलाया जाता है। इसमें से कुछ का असर खत्म हो जाता है, जो बचता है, उसका प्रभाव बढ़ता जाता है।
– इंसानों के खाने में एंटीबायोटिक मांस के माध्यम से पहुंच रहा है, जो लगातार हमारे शरीर को कमजोर बनाता है।

– एंटीबायोटिक के अधिक उपयोग से इनका असर भी कम हो जाता है। इससे बीमार होने पर दवा कारगर नहीं रहती।
– धीरे-धीरे एंटीबायोटिक के लिए हमारा शरीर अनुकूलित होता जाता है और इसका असर कम होने लगता है।

– यह एंटीबायोटिक मांस आदि के जरिये हमारे खाने में शामिल हो जाता है और यह इंसानी शरीर में पहुंचता है।
चारे में मिला रहे
भारत और चीन में पशु चारा बनाने वाली कंपनियां अनिवार्य तौर पर एंटीबायोटिक्स मिला रही हैं। यह ऐसा है जैसे हर व्यक्ति के आटे में ही दवा मिला दी जाए। ऐसा वे इसलिए करते हैं, क्योंकि इससे जानवरों का विकास ज्यादा होता है। यह चलन इतना बढ़ा है कि अब तो इनके पैकिंग पर भी नहीं लिखा जा रहा और ना ही पशुपालकों को इसका पता है।- रमनन लक्ष्मीनारायण, शोधकर्ता और सीडीडीईपी के निदेशक
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