टीकों को लेकर नवंबर में लगातार उत्साहजनक परिणाम आए। हजारों वॉलंटियर्स पर किए गए परीक्षणों के बाद फाइजर इंक, बायोटेक और मॉडर्ना के प्रारंभिक नतीजे 95 फीसदी प्रभावी पाए गए। जबकि एस्ट्राजेनेका शुरुआती विश्लेषण में 70 फीसदी प्रभावी मिली है। नियामकों ने टीके के अनुमोदन के बाद, उत्पादन और वितरण के लिए फास्ट टै्रक विकल्प तैयार कर लिए हैं। उधर चीन और रूस ने अपने स्तर पर परीक्षण के बाद टीके लगाना भी शुरू कर दिए।
वैश्विक मांग के अनुरूप बड़ी संख्या में वैक्सीन को सुरक्षित और प्रभावी बनाए रखना भी चुनौतीपूर्ण है। इन जरूरतों को ध्यान में रखते हुए इसी वर्ष कांच की शीशियों, सुई और अन्य उपकरणों की फैक्ट्रियां स्थापित की गईं। कुछ टीकों का उत्पादन भी शुरू हो गया, जिनका अभी परीक्षण किया जा रहा है। फाइजर का कहना है कि वर्ष के अंत तक पांच करोड़ डोज तैयार होने की उम्मीद है। जबकि अगले वर्ष 1.3 अरब खुराक के उत्पादन का लक्ष्य है।
वैक्सीन बनाने से बड़ी प्रतिस्पर्धा हासिल करने की है। वैक्सीन सबसे पहले किसे मिलेगी, यह उन समझौतों पर निर्भर करेगा जो सरकारों ने दवा कंपनियों के साथ किए हैं। अमरीका, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन ने अलग-अलग वैक्सीन कंपनियों से लाखों-करोड़ों खुराक के लिए अग्रिम समझौता कर लिया है।
टीके की प्रतिरक्षा को लेकर भी आशंकाएं हैं कि एक बार का टीका कितना कारगर होगा। मसलन खसरे का टीका एक बार लगने के बाद आजीवन प्रतिरक्षा बनी रहती है। शुरुआती अध्ययनों में पता चला है कि गंभीर रूप से ठीक हुए कोरोना के मरीजों में कई महीनों तक एंटीबॉडी का स्तर बना रहता है। जबकि जिनमें हल्के लक्षण थे, उनमें एंटीबॉडी समय के साथ कम हो जाती है। टीका लेने वालों पर महीनों निगरानी रखनी होगी, जो यह सुनिश्चित करेगा कि मास्क जैसे उपाय कितने दिन जरूरी हैं।
एक अनुमान के मुताबिक दुनिया की पूरी आबादी तक टीके पहुंचाने के लिए लगभग 8 हजार कार्गो विमानों की आवश्यकता होगी। इससे भी बड़ी मुश्किल कुछ टीकों को शून्य से माइनस 70 डिग्री सेल्सियस तक कम तापमान पर रखना होगा। गरीब देशों में टीकाकरण से जुड़ी गैर लाभकारी संस्था गावी (जीएवीआइ) का इस वर्ष के अंत तक विकासशील देशों में 65 हजार वैक्सीन रेफ्रिजरेटर उपलब्ध करवाने का लक्ष्य है।
कई देशों में टीकाकरण को लेकर अविश्वास बड़ी बाधा है। सितंबर में हुए एक सर्वे में आधे अमरीकियों ने ही टीके की इच्छा जाहिर की। ये आंकड़ा सात यूरोपीय देशों में 68 फीसदी था। फिर हर्ड इम्यूनिटी भी संभव नहीं है। क्योंकि इसके लिए या तो बड़ी आबादी का संक्रमित होना या टीका लगाए जाने से ही संभव है। लोगों का मानना है कि टीकाकरण का असर बचपन में ही होता है। फिर वैक्सीन बनने की प्रक्रिया भी सवालों के घेरे में है।