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‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ का प्रीमियर ट्रिबेका फिल्म समारोह में, एक और साझा कोशिश

locationमुंबईPublished: Mar 06, 2020 09:40:03 pm

‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ में तीन किरदारों के किस्से हैं। एक रईस है, जिसे यह इल्म होता है कि धन से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता। पिछड़ी जाति का एक जोड़ा बेहतर जिंदगी के सपने साकार करने में जुटा है तो एक भ्रष्ट पुलिसवाला है, जो मानता है कि कानून उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी' का प्रीमियर ट्रिबेका फिल्म समारोह में, एक और साझा कोशिश

‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ का प्रीमियर ट्रिबेका फिल्म समारोह में, एक और साझा कोशिश

-दिनेश ठाकुर
भारत और फ्रांस की साझा कोशिशों से बनी ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ (भाग्य से भेंट) सिनेमाघरों में पहुंचने से पहले सुर्खियों में आ गई है। निर्देशक प्रशांत नायर की इस फिल्म का वल्र्ड प्रीमियर न्यूयॉर्क के प्रतिष्ठित ट्रिबेका फिल्म समारोह में होगा। पंद्रह अप्रेल से शुरू होने वाले 12 दिन के इस समारोह में 30 देशों के 124 फिल्मकारों की 114 फिल्में दिखाई जाएंगी। तीन साल में यह दूसरा मौका है, जब किसी भारतीय फिल्म को ट्रिबेका में शामिल होने का मौका मिला है। इससे पहले राजकुमार राव की ‘न्यूटन’ (2017) इस समारोह के लिए चुनी गई थी।

'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी' का प्रीमियर ट्रिबेका फिल्म समारोह में, एक और साझा कोशिश

‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ में तीन किरदारों के किस्से हैं। एक रईस है, जिसे यह इल्म होता है कि धन से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता। पिछड़ी जाति का एक जोड़ा बेहतर जिंदगी के सपने साकार करने में जुटा है तो एक भ्रष्ट पुलिसवाला है, जो मानता है कि कानून उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए इन किरदारों पर भाग्य की मुट्ठी कैसे खुलती है, यह फिल्म का क्लाइमैक्स है। याद आता है कि देश की आजादी से पहले 14 अगस्त, 1947 की रात जवाहर लाल नेहरू ने वायसराय लॉज से जो ऐतिहासिक भाषण दिया था, वह भी ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ के नाम से मशहूर है। देश को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी यह भाषण नहीं सुन पाए। वह अपनी दिनचर्या का सख्ती से पालन करते थे। चूंकि भाषण देर रात शुरू होना था, इसलिए वह सोने चले गए थे। बहरहाल, ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ नाम से जो फिल्म बनी है, उसमें अहम किरदार विनीत कुमार, सुहासिनी मणिरत्नम, पलोनी घोष, जयदीप अहलावत और आशीष विद्यार्थी ने अदा किए हैं।

'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी' का प्रीमियर ट्रिबेका फिल्म समारोह में, एक और साझा कोशिश

खुशी की बात है कि भारत और फ्रांस की इस साझा कोशिश को अंतरराष्ट्रीय मंच मिल रहा है। वर्ना विभिन्न देशों के साथ भारत की साझा कोशिशों से फिल्में तो बहुत बनीं, इनमें से ज्यादातर को न माया मिली, न राम। यह परम्परा 70 साल पहले शुरू हुई थी, जब फिल्म डिवीजन ने 1950 में इटली के निर्देशक रोबर्टो रूसोलिनी को डॉक्यूमेंटरी फिल्में बनाने के लिए भारत बुलाया। वह हॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री इनग्रिड बर्गमैन के पति थे। रूसोलिनी ने यहां आकर डॉक्यूमेंटरी बनाने के बजाय सोनाली दासगुप्ता के साथ रोमांस में ज्यादा दिलचस्पी ली। वह सोनाली को पत्नी बनाकर साथ ले गए। इसके बाद 1970 में बीबीसी के लिए फिल्में बनाने लुई मैले भारत आए। उन्होंने जो फिल्में बनाईं, उन्हें देखकर सरकार का पारा चढ़ गया। इन फिल्मों पर तो रोक लगी ही, भारत से बीबीसी का निष्कासन भी हो गया।

भारत-अमरीका की साझा कोशिशों से 1978 में निर्देशक कृष्णा शाह ने भारी-भरकम बजट वाली ‘शालीमार’ बनाई। धर्मेंद्र, जीनत अमान, शम्मी कपूर और प्रेमनाथ के अलावा इसमें हॉलीवुड के रैक्स हैरीसन, सिल्विया माइल्स, जॉन सैक्सन जैसे सितारों का जमघट था, लेकिन सिनेमाघरों में उतरते ही फिल्म ऐसी बैठी कि फिर उठ नहीं सकी। आज इसे सिर्फ आर.डी. बर्मन की धुनों वाले गानों (हम बेवफा हर्गिज न थे, आइना वही रहता है) के लिए याद किया जाता है। रूस के सहयोग से बनी धर्मेंद्र-हेमा मालिनी की ‘अलीबाबा और चालीस चोर’ (1980) तथा 1983 में भारत-कनाडा-बांग्लादेश की साझा पेशकश ‘दूर देश’ (शशि कपूर, शर्मिला टैगोर) भी घाटे का सौदा साबित हुईं। फ्रांस के सहयोग से बनी राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम की ‘सलाम बॉम्बे’ (1988) और ‘लंच बॉक्स’ (2013) जरूर उम्मीद जगाती हैं कि साझा पुल को सलीके से मजबूत किया जाए तो अच्छी फिल्में बन सकती हैं।

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