सोफिया लॉरेन की जिंदगी का सफर उन परी कथाओं जैसा है, जिनमें एक गरीब लड़की का बचपन मुश्किलों और तकलीफों के बीच कदमताल करते हुए कटता है। फिर अचानक वक्त जादू की छड़ी घुमाता है और यह लड़की राजकुमारी बनकर घुटन वाले छोटे मकान से सीधे महल में पहुंच जाती है। इटली में जन्मीं सोफिया को अपनी मां की नाजायज संतान होने के कारण बचपन में बहुत कुछ सहना पड़ा। वह इतनी दुबली-पतली थीं कि स्कूल में उन्हें ‘टूथ पिक’ कहकर चिढ़ाया जाता था। चिढ़ाने वालों का इतिहास में कोई नामो-निशान नहीं होता, चिढऩे वाले जरूर इतिहास रच देते हैं। इतिहास रचने से पहले सोफिया लॉरेन को दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लम्बा त्रास झेलना पड़ा। गुजर-बसर के लिए उनकी मां पब चलाती थीं और सोफिया पर वेट्रेस के अलावा ग्राहकों के जूठे बर्तन साफ करने की जिम्मेदारी थी। बचपन का यह हिस्सा नायिका बनने के बाद भी सोफिया की यादों में धड़कता रहा। ‘टू वीमैन’ (1960) में उनकी लाजवाब अदाकारी के पीछे इन्हीं यादों का प्रभाव है।
सोफिया लॉरेन को ऑस्कर अवॉर्ड तक पहुंचाने वाली ‘टू वीमैन’ इटली के फिल्मकार वितोरियो डी सीका ने बनाई थी, जो इससे पहले नव यथार्थवादी ‘द बाइसिकिल थीफ’ (1950) बनाकर अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बटोर चुके थे। ‘द बाइसिकिल थीफ’ देखकर ही भारतीय फिल्मकार सत्यजित रे को ‘पाथेर पांचाली’ बनाने की प्रेरणा मिली। ‘टू वीमैन’ मां-बेटी के रिश्तों की कहानी है। सोफिया लॉरेन मां के किरदार में हैं। फिल्म एक मां की आंखों से युद्ध की तबाही देखती है और तल्ख अंदाज में साबित करती है कि युद्ध में सबसे ज्यादा महिलाओं को ही झेलना पड़ता है। दूसरे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि वाली इस फिल्म में बमबारी के बीच भूखी-प्यासी मां-बेटी एक वीरान गिरजाघर में पनाह लेती हैं। वहां से गुजरते कुछ फौजियों की नजर उन पर पड़ती है। पहले मां-बेटी के साथ मारपीट होती है। फिर दोनों के साथ बलात्कार किया जाता है। बाद में मां-बेटी एक गांव में पहुंचती हैं, जहां नई मुसीबतों का सिलसिला शुरू हो जाता है।
यूं सोफिया लॉरेन के खाते में करीब सौ फिल्में दर्ज हैं, ‘टू वीमैन’ ने उन्हें अमर कर दिया। इस फिल्म में बतौर अभिनेत्री वे उसी चरम पर हैं, जहां ‘मदर इंडिया’ में नर्गिस नजर आती हैं।