script‘द सोशल डिलेमा’ : आंखें खोलने वाली पेशकश, खतरों से घिरी दुनिया | The Social Dilemma documentary on social evil | Patrika News

‘द सोशल डिलेमा’ : आंखें खोलने वाली पेशकश, खतरों से घिरी दुनिया

locationमुंबईPublished: Sep 18, 2020 07:43:08 pm

यह डॉक्यूमेंट्री सॉफ्टवेयर कंपनियों की हमलावर रणनीति और इरादों को सीन-दर-सीन तार-तार करती चलती है। पहले सुनियोजित ढंग से दुनियाभर के लोगों को आपस में जुडऩे, गपशप करने, नए रिश्ते बनाने और अभियान चलाने का मंच दिया गया। जब विशाल आबादी सोशल मीडिया पर सक्रिय हो गई तो कंपनियों ने अपने कारोबारी मकसद साधने शुरू कर दिए।

'द सोशल डिलेमा' : आंखें खोलने वाली पेशकश, खतरों से घिरी दुनिया

‘द सोशल डिलेमा’ : आंखें खोलने वाली पेशकश, खतरों से घिरी दुनिया

-दिनेश ठाकुर
दुष्यंत कुमार का शेर है- ‘एक आदत-सी बन गई है तू/ और आदत कभी नहीं जाती।’ मामला आदत तक सीमित रहे तो सुधार की गुंजाइश रहती है, इसका लत में तब्दील हो जाना खतरे की घंटी है। एक ओटीटी प्लेटफॉर्म पर दिखाई जा रही अमरीकी डॉक्यूमेंट्री ‘द सोशल डिलेमा’ (सामाजिक संकट) दुनिया को इसी तरह के उन खतरों के प्रति आगाह करती है, जो सोशल मीडिया के मायाजाल ने पैदा किए हैं। निर्देशक जैफ ऑर्लौक्सी की इस पेशकश में कई डिजिटल तकनीक विशेषज्ञों की बातचीत के आधार पर सोशल मीडिया के बारे में आंखें खोलने वाली सच्चाइयां पेश की गई हैं। सबसे खतरनाक सच यह है कि सोशल मीडिया की आभासी (वर्चुअल) दुनिया लोगों को वास्तविक दुनिया से दूर ले जा रही है, उनकी सोचने-समझने की क्षमताओं के साथ-साथ संवेदनाओं को भी कुंद कर रही है। ‘द सोशल डिलेमा’ के मुताबिक फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसी सॉफ्टवेयर कंपनियां लोगों को ‘उपभोक्ता’ नहीं, ‘प्रयोगकर्ता’ (यूजर) मानती हैं। ड्रग्स का नाजायज कारोबार करने वाले भी अपने ग्राहकों को यही मानते हैं।

नब्बे मिनट की यह डॉक्यूमेंट्री सॉफ्टवेयर कंपनियों की हमलावर रणनीति और इरादों को सीन-दर-सीन तार-तार करती चलती है। पहले सुनियोजित ढंग से दुनियाभर के लोगों को आपस में जुडऩे, गपशप करने, नए रिश्ते बनाने और अभियान चलाने का मंच दिया गया। जब विशाल आबादी सोशल मीडिया पर सक्रिय हो गई तो कंपनियों ने अपने कारोबारी मकसद साधने शुरू कर दिए। मार्क जुगरबर्ग ने जब 2006 में फेसबुक का आगाज किया था, उनकी कमाई के स्रोत सीमित थे। आज वे दुनिया की सबसे कमाऊ सॉफ्टवेयर कंपनी के मालिक हैं। डॉक्यूमेंट्री में बताया गया है कि किस तरह फेसबुक और इंस्टाग्राम पर सक्रिय लोगों के डाटा दुनियाभर की विज्ञापनदाता कंपनियों को मुहैया कर जुकरबर्ग अरबों डॉलर में खेल रहे हैं।

‘द सोशल डिलेमा’ के मुताबिक सोशल मीडिया का इस्तेमाल विभिन्न देशों में हिंसा भड़काने और चुनाव परिणामों को प्रभावित करने में भी हो रहा है। अमरीका में कुछ महीने पहले पुलिस की पिटाई से एक अश्वेत की मौत के बाद बड़े पैमाने पर भड़की हिंसा के लिए सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहराया गया। इस हिंसा ने वहां अर्से बाद रंगभेद के मुद्दे को फिर हवा दे दी। भारत में सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद जो ‘मीडिया ट्रायल’ चल रही है, उसे चटपटा और गरमागरम मसाला सोशल मीडिया से ही मिल रहा है। अदालतें अगर दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए पहचानी जाती हैं तो सोशल मीडिया पानी में आग लगाने का मंच बन गया है।

पिछले कुछ साल के दौरान दुनियाभर में तनाव और अवसाद की चपेट में आने वालों की आबादी तेजी से बढ़ी है। समाजशास्त्री फिलहाल साफ तौर पर नहीं बता पा रहे हैं कि इसका मोबाइल और सोशल मीडिया के बढ़ते इस्तेमाल से क्या रिश्ता है। लेकिन ‘द सोशल डिलेमा’ साफ-साफ संकेत देती है कि सोशल मीडिया पर लगाम नहीं कसी गई तो आने वाले समय में तस्वीर और भयावह हो सकती है।

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