अंतिम यात्रा में शामिल होकर इन महिलाओं ने सास की अर्थी को श्मशान घाट तक पहुंचाकर बहू-बेटी के बीच भेद को मिटाने और नारी सशक्तिकरण की बेजोड़ मिसाल पेश की। आइए जानते हैं इन महिलाओं के बारे में जिन्होंने समाज के द्वारा बनाए गए नियमों के खिलाफ जाने की हिम्मत की।
महाराष्ट्र के बीड की लता नवनाथ नाइकवाडे, उषा राधाकिशन नाइकवाडे, मनीषा जलिंदर नाइकवाडे, और मीना माछिंद्र नाइकवाडे ने निश्चित रूप से इन बंधनों को तोड़कर समाज और देश को एक नई दिशा देने की कोशिश की है। इन बहुओं की पहल ने ना सिर्फ़ पुरानी परंपराओं को तोड़ा है, बल्कि लोगों को यह संदेश भी दिया है कि सास बहुओं के बीच के संबंध अच्छे भी हो सकते हैं। और बहुएं भी बेटा बनकर अपने दायित्वों को पूरा कर सकती हैं।
समाज की रुढ़िवादी परंपरा के बारे में बात करें तो शुरू से ही हमें यह देखने को मिला कि, हमारे पितृसत्तात्मक समाज ने शुरू से ही महिलाओं को समाज का भय दिखाकर या कमजोर बताकर उन्हेें दबाने की कोशिश की गई है लेकिन आज के समय की महिलाओं नें उन नियमों का खंड़न किया है। जिसका जीता जागता उदाहरण अभी हाल ही में देखने को मिला था जब उन्हें अपने पिरियड्स के दौरान मंदिरों में प्रवेश करना मना था।
इतना ही नहीं इस दौरान उन्हें रसोई से दूर रखा जाता था क्योंकि उस समय उन्हें “अशुद्ध” माना जाता है, इन दिनों उन्हें व्रत रखने पर जोर दिया जाता था जिससे उनके पति की उम्र लंबी बनी रहे। इस तरह के कड़े नियमों के बीच महिलाओं को इनका पालन बड़ी ही इमानदारी के साथ करना जरूरी होता था। लेकिन आज के समय की नारी अबला नहीं है वो सब कर सकती है, जो समाज उसे एक मर्द की छवि के रूप में देखना चाहता है। लेकिन उनकी सोच को बदल दिया है आज की नारी ने।