स्वाध्याय और मैत्री भाव को अपनाएं[typography_font:14pt;” >हुब्बल्लीआचार्य महाश्रमण ने कहा कि मनुष्य को यथार्थ के प्रति श्रध्दा का भाव रखना चाहिए। यथार्थ का समर्थन करने का प्रयास करना चाहिए। ईमानदारी यथार्थ से जुड़ा हुआ तत्व है।अहिंसा यात्रा के तहत हुब्बल्ली नगर प्रवेश के दौरान शांतिनाथ स्कूल में आयोजित धर्म सभा तथा साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा के साध्वीप्रमुख मनोनयन के 48वीं वर्षगांठ के समारोह को संबोधित करते हुए आचार्य महाश्रमण ने कहा कि आदमी यदि मन में यह ठान लेगा कि वह कभी बेईमानी नहीं करेगा तो जीवन में ईमानदारी का विकास हो सकता है। ईमानदारी से व्यक्ति तथा समाज दोनों अच्छे बन सकते हैं। जो आदमी यथार्थ को समर्पित करता है वह यथार्थ को प्राप्त करता है।आचार्य महाश्रमण ने कहा कि व्यक्ति धन्य होता है जो यथार्थ के धरातल पर अपने आपको श्रमण के रूप में अनुभव करता है, जो दीक्षित हो जाता है व श्रमण बन जाता है। आचार्य ने कहा कि स्वाध्याय करने का धार्मिक व व्यवहारिक जीवन में विशेष महत्व होता है। जब आदमी स्वयं का अध्ययन कर ले तो अपने आप वह वास्तविक सुधार कर सकता है और अपना संपूर्ण विकास कर सकता है। स्वाध्याय करने से ज्ञान का नैतिक विकास होता है। सत्यता की पहचान होती है। उसके बाद जीवन को शांति व सौहार्दपूर्वक तरीके से व्यतीत किया जा सकता है। सत्य को जानने से चेतना सुन्दर बन जाती है। शरीर की सुन्दरता भी मायने रख सकती है लेकिन चेतना की सुन्दरता का कोई मोल नहीं होता। ज्ञान के प्रकाश में चलना अहिंसा के मार्ग पर चलने जैसा है। स्वाध्याय के समान दुसरा कोई तप नहीं है, वही सर्वोत्कृष्ट तप बताया गया है। स्वाध्याय से साधना का पथदर्शन होता है। आगम में ज्ञान को प्रकाशकर कहा गया है। अपनी आत्मा का अध्याय करना स्वाध्याय है। अर्थात सब तरह से अध्याय करना स्वाध्याय है। जो तत्व जैसा है उसे यथार्थ रूप में प्रस्तुत करना उस पर श्रद्धा करना उसका सम्यक होता है। आदमी की आत्मा अनादि काल से भ्रमण कर रही है। भगवान महावीर की आत्मा भी अनादि काल से भ्रमण करने के उपरान्त मोक्ष को प्राप्त हो चुकी है। इस प्रकार एक प्रकार से कहा जा सकता है कि प्रत्येक आत्मा कभी न कभी मिथ्यादृष्टि ही थे। स्वाध्याय ज्ञानार्जन का उपाय होता है। इसलिए स्वाध्याय करने का प्रयास करना चाहिए। उन्होंने कहा भगवान महावीर के उत्तराधिकारी सुधामा बने। सुधामा ने स्वाध्याय किया। गौतम मुनि केवल ज्ञानी थे। स्वाध्याय का अर्थ केवल करना नहीं, आत्म चिंतन, विचारशीलता व जागरुकता भी है। बारह प्रकार के आंतरिक के बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है और न होगा। स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय (ज्ञान को रोकने वाले) कर्मों का नाश करता है। भगवती सूत्र में प्रभु महावीर ने बतलाया कि सही प्रकार से स्वाध्याय करने से मनुष्य अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि जीवन में क्षमा बहुत महत्वपूर्ण होती है। क्षमा से ही मैत्री जुड़ी हुई है। व्यक्ति सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखे, सोचे कोई भी मेरा शत्रु नहीं है। क्षमा को जीना आसान नहीं होता। कोई कुछ प्रतिकूल आचरण करता है तो गुस्सा आ जाता है। व्यक्ति समता, मैत्री भाव में रहे और तो गुस्सा न आए। कोई हमें कष्ट दे तो भी हम उसके प्रति मैत्री रखें। खुद के साथ जो अनुकूल रहता है। उससे मित्रता रखना बड़ी बात नहीं परंतु जो प्रतिकूल रहे उसके लिए भी मन में मैत्री रखना बड़ी बात है। व्यक्ति संसार के सभी प्राणियों के प्रति मैत्री रखते हुए क्षमा को अपने जीवन में लाए। मैत्री लोगों को जोड़ती है। अहंकार, दुशमनी, नफरत, ईर्शा, घमंड, गुरूर तोड़ती है, यहां टूटा भाव होता है। मैत्री में एक दूसरे से जोडने वाला तत्व होता है। जो जोडऩे की बात करता है उसका कोई विरोध नहीं करता। मार-काट, दंगे आदि से बचना चाहिए और मैत्री भाव बढ़ाना चाहिए। इस दौन साध्वियों, मुनियों तथा समणियों ने गीत पेश किया।