धर्म से ही मिलता है ऐश्वर्य—जैन आचार्य महेन्द्रसागर सूरि ने कहाा[typography_font:18pt;” >धारवाड़श्री शीतलनाथ जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ में बुधवार को दीक्षा महोत्सव के दूसरे दिन प्रात: प्रभातिया, मंगलगीत, शहनाई वादन एवं भक्तामर व सामूहिक चैत्यवंदन का कार्यक्रम हुआ। इस अवसर पर धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्य महेन्द्रसागर सूरि ने कहा कि धर्म से ही ऐश्वर्य मिलता है, धर्म से ही सुख मिलता है और धर्म से ही जो कुछ भी अच्छा है वह मिलता है। धर्म ही एकमात्र जगत में सारभूत है। धर्म एक ऐसा शब्द है जिस पर हर मानव का विश्वास होता है। धर्म के नाम पर मानव अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हो जाता है, क्योंकि मानव कल्याण यदि संभव है, तो वह केवल धर्म के माध्यम से ही है। धर्म के बिना मानव पशु के समान है। यह धर्म ही है जो हमें मनुष्य के रूप में ढालता है। मानवता का पाठ पढ़ाता है। मानव के आध्यात्मिक सुख का मूल स्रोत धर्म है। धर्म की प्रीति का रसपान कर मनुष्य निर्भय और निष्पाप हो जाता है। उन्होंने कहा कि दीक्षा महोत्सव के चलते इन दिनों धारवाड़ के निवासियों का उत्साह व उमंग हिलोरे ले रहा है। महोत्सव के तहत यहां विविध कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है।ऐसी कोई चीज नहीं जिसमें कोई गुण न हो इससे पहले मंगलवार को आचार्य महेन्द्रसागर सूरि ने कहा कि ऐसा कोई अक्षर नहीं जिसमें से मंत्र न बनता हो, ऐसी कोई जड़ नहीं जिसमें से कोई औषधि न बनती हो, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसमें कोई गुण न हो और ऐसा कोई अवसर/ आयोजन नहीं जिसमें से कोई न कोई धर्म भावना उद्भूत न होती हो, जरूरत सिर्फ एक आयोजक की होती है।उन्होंने कहा कि वर्तमान में जिनशासन की प्रभावना से समकित के बीज का आरोपन धर्म के अद्भुत अनुष्ठानों से कइयों के हृदय में होता है। जहां व्यक्ति में नम्रता, उदारता, सरलता व उत्साहता जैसे भरपूर गुण हों और अन्य लोगों को भी अनुष्ठानों में जोडऩे की भावना हो, वहीं आश्चर्यचकित कर देने वाले जिन शासन के रागी बना देने वाले कार्यक्रम होते हैं। उन्होंने कहा कि जिस कार्यक्रम में संघ पूजन, श्रेष्ठ द्रव्यों से बेनमून प्रभु भक्ति हो, वहां ऐसा होना संभव है। ऐसे प्रसंगों में सभी को जुड़ जाना चाहिए। बिखरने के तो लाख बहाने मिल जाएंगे, हम जुडऩे के अवसर में जुट जाएं। यह जरूरी नहीं कि व्यक्ति अनुष्ठान व महोत्सव से खुश हो, मगर हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि अनुष्ठान में हमसे मिलकर कोई जरा भी दु:खी न रहे या न हो।