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खूब गिरे

Published: Nov 04, 2015 04:39:00 am

Submitted by:

afjal

पता नहीं बचपन से सठियानेे तक हम न जाने कितनी बार गिरे हैं। शुरू में साइकिल से गिरे, किशोरावस्था में खेल के मैदान में गिरे, जवानी में प्रेमिका की नजरों से गिरे, प्रोढ़़ावस्था में स्कूटर से गिरे और अभी खुद तो नहीं गिरे पर देश के नेताओं को लगातार गिरते देख अहसास होता है कि मानो हम भी गिरते जा रहे हैं। 

पता नहीं बचपन से सठियानेे तक हम न जाने कितनी बार गिरे हैं। शुरू में साइकिल से गिरे, किशोरावस्था में खेल के मैदान में गिरे, जवानी में प्रेमिका की नजरों से गिरे, प्रोढ़़ावस्था में स्कूटर से गिरे और अभी खुद तो नहीं गिरे पर देश के नेताओं को लगातार गिरते देख अहसास होता है कि मानो हम भी गिरते जा रहे हैं। 

सन् बासठ से चुनाव देख रहे हैं लेकिन भाषणों का जैसा गिरता स्तर इस बार बिहार में देख रहे हैं वैसा पहले न देखा न सुना। जितनी मारामारी, गैर जिम्मेदारी बिहार में देखने को मिली है उससे कसम से हेमन्त कुमार का ये गाना गाने को जी कर रहा है- तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाए। परन्तु सोचते हैं अगर मर कर भी चैन न मिला तो क्या करेंगे? अब आप ही बताएं कि इस गाली वाचन का श्रेय किसे दें। 

कोई किसी को तांत्रिक बता रहा है तो कोई किसी की हाथ बंचवाते हुए फोटो दिखा रहा है। कोई किसी को नरभक्षी बता रहा है तो कोई किसी को भूत। कोई कह रहा है कि ये बेईमान हैं तो कोई दूसरे को महाझूठा करार दे रहा है। कोई कह रहा है कि उनकी जीत पर पाकिस्तान में पटाखे चलेंगे तो कोई कह रहा है कि बिहार में दो दिवाली मनाई जाएगी। 

ऐसा लग रहा है कि राजनीति के इन तोतों की सांस मानो बिहार की हार-जीत में ही अटकी हो। इन कर्णधारों को देश की चिन्ता है भी या नहीं। एक पुराने शायर कहते हैं- दुश्मनी जम के करो पर ये गुंजाइश रहे, जब कभी हो सामना तो कोई शर्मिन्दा न हो। लेकिन ऐसा चुनावी युद्ध देख कर तो लगता है कि भविष्य में कोई एक दूजे की तरफ झांकेगा भी नहीं। 

क्या सचमुच एक उदार, सहिष्णु, समन्वयवादी कहलाने वाली संस्कृति की ऐसी-तैसी हमारे ही माननीय नहीं कर रहे? बड़े बुजुर्गों ने कहा है कि तलवार का घाव तो भर जाता है पर जुबान का घाव नहीं भरता। आम जनता को भी अहसास होने लगा कि वह एक ऐसे कगार पर आ खड़ी है जिसमें इधर गिरे तो कुआ और उधर गिरे तो खाई। 

चुनाव में चाहे कोई बाजी मारे पर जो भी जीतेगा वह दूसरे पर इतने वार करेगा कि फिजा में जहरीली हवा लगातार तैरती रहेगी। देश में वैसे ही आक्सीजन की कमी होती जा रही है।राजनीति के प्रदूषण से तो जनता की जान पर ही बन आएगी। अरे कोई तो बताओ कि हम क्या करेंगे।  
– राही

आम जनता को भी अहसास होने लगा कि वह एक ऐसे कगार पर आ खड़ी है जिसमें इधर गिरे तो कुआ और उधर गिरे तो खाई। 
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