नाटक की कहानी इतनी है कि नीची जाति का दुखिया अपनी बेटी के विवाह का मुहूर्त निकलवाने के लिए पंडित के घर जाता है। पंडित जी मुहूर्त देखने के बदले में दुखिया से बहुत सारे काम करवाते हैं। वे दुखिया को खलिहान से भूसा लेकर आने, घास काटने, आंगन गोबर से लीपने के काम के बाद लकड़ी काटने का भी हुक्म देते हैं। दुखिया दो दिन से बुखार में है और सुबह से भूखा भी है। पंडित के घर में उसे पानी तक नहीं मिलता। थके और बीमार दुखिया को लकड़ी काटते शाम हो जाती है और आखिरकार दुखिया लकड़ी काटते काटते मर जाता है। घबराया हुआ पंडित दुखिया की लाश को ठिकाने लगाने के लिए उसके पैर में रस्सी बांध कर घसीटता हुआ जंगल में फेंक आता है। निर्देशक पुष्पलता सांगड़े ने बेहद कल्पनाशीलता के साथ नाटक तैयार किया। अभिनव कला समाज का मंच छोटा होने से नाटक का ज्यादातर हिस्सा मंच के नीचे खेला गया। हालांकि इससे पीछे वाले दर्शकों को खड़े रह कर देखना पड़ा। दुखिया के घर से लेकर पंडित के घर तक के दृश्य बेहद सूझबूझ से तैयार किए गए थे। संवाद बुंदेलखंडी में थे और सभी कलाकारों ने बुंदेली का उच्चारण इतनी सहजता से किया जैसे वही उनकी मातृभाषा हो।
अभिनय को मिली दाद दुखिया के रूप में जैकी भावसार का अभिनय श्रेष्ठतम था। उसका पत्नी के साथ हंसी मजाक हो या पंडित के सामने सहमना, थकान से लड़खड़ाना और आंखों में बेबसी के भाव उनके अभिनय को बहुत ऊंचाई पर ले गए। पंडित की भूमिका में शोभित खरे का अभिनय भी गजब का था। उनका वाचिक ही नहीं आंगिक अभिनय भी ब्राह्मण होने के गर्व को जाहिर कर रहा था। पंडिताइन के रूप में भारती मजूमदार और दुखिया की पत्नी बनी विभा परमार का अभिनय भी उनके पात्रों के अनुरूप था। देखा जाए तो सभी कलाकार मंच पर इस तरह मौजूद रहे कि महसूस ही नहीं हुआ कि वे अभिनय कर रहे हैं। नाटक समाज से जुड़े कई सार्थक संदेश देकर गया।