साथ में ऑपरेशन के बाद नेत्र गंवाने वाले दो मरीजों की आंखे चेन्नई में बचाई तो यहां क्यों नहीं हुए प्रयास
इंदौर आंखफोड़वा कांड में सबसे बड़ा सवाल, दो महिलाओं की आंखों को बचाया जा सकता था तो क्यों निकाल दी ?
इंदौर. इंदौर नेत्र चिकित्सालय में 15 मरीजों की आंख की रोशनी छीनने के मामले में जांच में दोषी पाए जाने के बावजूद अस्पताल प्रबंधन व डायरेक्टर डॉ. सुधीर महाशब्दे अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है। खुद को पाक साफ बताकर चिकित्सकों और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) का समर्थन जुटाकर प्रशासन द्वारा अपेक्षित कार्रवाई को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। इस बीच सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा है कि जिन दो महिलाओं की आंखे निकाली गई, उनकी भी आंख बच सकती थी, क्योकि साथ में ऑपरेशन कराने वाले दो मरीजों की आंखे 16 दिन बाद चेन्नई में ऑपरेशन कर बचा ली गई। पांच अगस्त को ही 8 में से चार मरीजों को इंफेक्शन हो गया था तो 8 अगस्त को क्यों 13 मरीजों की सर्जरी की गई। नि:शुल्क इलाज का दावा करने वाले अस्पताल में क्यों मरीजों से 15 से 25 हजार रुपए तक की वसूली की गई।
गौरतलब है, 5 अगस्त को ऑपरेशन कराने वाली मुन्नीबाई रघुवंशी निवासी स्कीम 51 की आंख 13 अगस्त को निकाली गई। उन्हीं के साथ ऑपरेशन कराने वाली राधाबाई यादव की आंख निकालने का ऑपरेशन 14 अगस्त को किया गया। इनके साथ ऑपरेशन कराने वाले बालमुकुंद वैष्णव और मिश्रीलाल के ऑपरेशन चेन्नई के शंकर नेत्रालय में हो चुके हैं। दोनों की आंखे कार्निया ट्रांसप्लांट कर बचा ली गई हैं, अब रोशनी लौटाने के लिए इलाज किया जा रहा है। इससे पहले भेजे गए तीन मरीजों में से दो की आंखे बचा ली गई हैं। एक मरीज मोहन की आंख निकालना पड़ी है।
मुन्नीबाई रघुवंशी के घर पत्रिका की टीम पहुंची तो वह पलंग पर पड़ी थी। बेटे रंजीत ने बताया, ऑपरेशन से पहले मां घर का सारा काम खुद ही करती थी। लाख कहने के बाद भी आराम नहीं करती थी, ऑपरेशन के बाद से वह पलंग पर हैं। डॉ. राजीव रमन के इलाज के बाद दर्द तो खत्म हो गया है, लेकिन दवाओं के असर के कारण कई परेशानियां खड़ी हो गई हैं। ऑपरेशन के वक्त लिए गए रुपए अस्पताल प्रबंधन ने नहीं लौटाए। अधिकारियों ने शासन द्वारा घोषित मुआवजा हमें भी मिलने की बात कही थी, लेकिन अब तक कोई पैसा नहीं मिला है। मुन्नीबाई का कहना है, हमारे साथ जिन मरीजों का ऑपरेशन हुआ, वह चेन्नई में ठीक हो सकते हैं तो हमारे साथ यह अन्याय क्यों किया गया। आंख खोने का दर्द वह लोग क्या जानेंगें, जो अपनी लापरवाही भी मानने को तैयार नहीं है।
must read : संदीप तेल हत्याकांड : मुठभेड़ के बाद शूटर गिरफ्तार, दो पुलिसकर्मी घायल, जयपुर में होगी पूछताछ हमें तो आंख निकालने के बाद दी जानकारी राधाबाई यादव की हालत भी कुछ इसी तरह की है। बेटे मनीष और भाई अजय का कहना है, २६ हजार रुपए अस्पताल ने वसूले थे। आंख निकालने के लिए १४ अगस्त को ओटी में ले जाया गया, जबकि स्वास्थ्य विभाग ने एक दिन पहले ही ओटी सील करने की बात कही थी। ऑपरेशन के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर लिए गए, लेकिन यह नहीं बताया कि आंख निकाली जा रही है। ऑपरेशन के बाद कहा गया कि आंख नहीं निकालते तो जान चली जाती।
– चेन्नई के शंकर नेत्रालय में पांच अगस्त को ऑपरेशन कराने वाले दो मरीजों की आंखे बचा ली गई तो इंदौर नेत्र चिकित्सालय में आंखे निकालने की जल्दी क्यों की गई? अस्पताल का तर्क: मरीजों की आंखों में इंफेक्शन फैल रहा था। दूसरी आंख जाने का खतरा था, दिमाग तक इंफेक्शन होने पर जान भी जा सकती थी।
असलीयत: मरीजों का ऑपरेशन 13 व 14 अगस्त को किया गया। जब यह मामला प्रकाश में आ चुका था। नेत्र निकालने में इतनी जल्दबाजी थी कि स्वास्थ्य विभाग को सूचना तक नहीं दी गई। साथ ही तीन सर्जन का ओपिनियन नहीं लिया गया। मरीजों के परिजनों को भी दूसरी जगह ओपिनियन लेने की सलाह नहीं दी गई।
– पांच अगस्त को जिन चार मरीजों के ऑपरेशन किए गए, उनकी सूजन इंफेक्शन के कारण है यह समझने में चार दिन लग गए, 8 अगस्त को जिन मरीजों का ऑपरेशन किया गया, उन्हें इंफेक्शन होने की बात अगले ही दिन कैसे समझ ली गई? अस्पताल का तर्क: पहले हमे सामान्य रिएक्शन लगा, जिसकी दवा दी गई। 8 अगस्त तक पता नहीं चला था कि संक्रमण हुआ है।
असलीयत: डॉ. महाशब्दे एक लाख से ज्यादा सर्जरी करने का दावा करते हैं, क्या वह अपने अनुभव से नहीं समझ पाए कि इन मरीजों की सूजन व परेशानी इंफेक्शन की वजह से थी? जूनियर डॉक्टरों द्वारा 8 अगस्त को किए गए ऑपरेशन में यह बात हजम की जा सकती थी। 9 अगस्त को ही संक्रमण का इलाज शुरू कर दिया गया तो विभाग को जानकारी देने में तीन दिन क्यों लगाए।
– संस्था को शासन से जमीन लाभहानी रहित इलाज के लिए मिली थी। पांच तारिख को ऑपरेशन के बदले मरीजों से 15 से 25 हजार रुपए तक वसूले गए। ऑपरेशन बिगड़ा तो पैसे लौटाए भी गए। यह बातें मरीजों ने अपने बयान में दर्ज कराई है।
अस्पताल का तर्क: 48 साल में हम करीब एक लाख मरीजों का नि:शुल्क इलाज कर चुके हैं। अस्पताल चलाने का मकसद मुनाफा कमाना नहीं बल्कि गरीब मरीजों की सेवा करना है। लेंस के चयन में मरीजों के परिजन की इच्छा अनुसार खर्च होता है।
असलीयत: आंख गंवाने वाली मरीज मुन्नीबाई रघुवंशी के बेटे रंजीत बताते हैं, हमसे 15 हजार रुपए लिए गए। एक बार भी लेंस को लेकर कोई विकल्प नहीं बताया गया। बस ऑपरेशन में यह खर्च होने की बात कही गई।
– मरीजों से पैसा लेने के अलावा दवा दुकान व कैंटिन से किराया वसूला जा रहा था। लाभहानी रहित अस्पताल के हिसाब से यहां किराए की बजाए मरीजों को सस्ती दवा व खाना मुहैया कराया जाना था। सरकारी योजना में दो हजार रुपए और निजी मरीजों से 25 हजार वसूली क्यों?
अस्पताल का तर्क: हम अस्पताल से किसी तरह का मुनाफा नहीं कमाते, यहां से मिलने वाला पैसा यहीं खर्च कर दिया जाता है। कई मरीजों का ऑपरेशन नि:शुल्क किया जाता है। असलीयत: प्रशासन की टीम द्वारा की गई जांच में साफ हो गया कि मरीजों को लगाए जाने वाले लैंस से कई गुना पैसा वसूला गया। सरकारी योजना में मरीजों के ऑपरेशन के लिए दो हजार रुपए लिए गए। इसी खर्च में अन्य अस्पताल भी योजना में आने वाले मरीजों का ऑपरेशन करते हैं। एक सर्जरी में लैंस सहित लगने वाली दवा का खर्च 500 रुपए आता है, डॉक्टर को 500 रुपए फीस देने के बाद भी एक हजार रुपए मुनाफा अस्पताल को होता है।