इधर, इस कमी को भांपकर चिकित्सा शिक्षा से जुड़े शिक्षक बार-बार आंदोलन की चेतावनी जारी कर रहे हैं। दो स्थितियां बन रही हैं। एक तो उनकी मांगे खत्म नहीं हो रही हैं और दूसरा उनकी मांगें मानी ही नहीं जा रही है। सरकार को चाहिए कि इस विषय को बेहद गंभीरता से लें। असल में चिकित्सा शिक्षा का सीधा संबंध स्वास्थ्य सेवाओं से है। प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी घोषणाओं में से एक है-स्वास्थ्य का अधिकार कानून। इस घोषणा को कागज में तो सरकार कभी भी पूरा कर सकती है, मगर चिकित्सकों की कमी के चलते अमली जामा पहनाना बेहद कठिन है।
इसका सबसे बड़ा कारण है कि प्रदेश में चिकित्सकों की कमी। अभी दो दिन पहले ही इंदौर में प्रदेश के पहले संजीवनी क्लिनिक का उद्घाटन किया गया है। कहा जा रहा है कि प्रदेश में ऐसे 208 क्लिनिक स्थापित किए जाएंगे। मगर पहले क्लिनिक के उद्घाटन के बाद ही चिकि त्सकों की उपलब्धता का प्रश्न खड़ा हो गया है। शहरी क्षेत्र में ही चिकित्सक नहीं मिल रहे हैं तो ग्रामीण क्षेत्रों में क्या होगा, इस बारे में दूरगामी फैसले करने होंगे।
दूरगामी फैसले यही हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाओं में बढ़ोतरी की जाए और इन्हें न्यूनतम आवश्यकता के स्तर तक तो पहुंचाया ही जाए। दूर दराज के इलाकों में चिकित्सकों के नहीं जाने का एक कारण वहां सुविधाओं का अभाव है। सुविधाओं के अभाव में चिकित्सक स्वयं को असहाय पाते हैं। इससे उन्हें अभ्यास मिलने और अपना कौशल निखारने का मौका भी कम मिल पाता है। सुविधाएं बढ़ेंगी तो चिकित्सकों का ग्रामीण क्षेत्रों में जाना भी बढ़ेगा।