श्री जैन श्वेतांबर मूर्ति पूजक संघ ट्रस्ट के तत्वावधान में आचार्य जिनरत्न सागर सूरिश्वर के सान्निध्य में साध्वी गुणरत्नाश्रीजी का नगर प्रवेश २६ दिसंबर को कालानी नगर स्थित श्वेतांबर जैन उपाश्रय में हुआ था। तबीयत बिगडऩे के बाद शुक्रवार सुबह ७.३० बजे के करीब साध्वी श्रीजी ने अंतिम सांस ली। घटना की खबर मिलने पर संपूर्ण समाज में शोक की लहर छा गई। ट्रस्ट अध्यक्ष शांतिप्रिय डोसी ने बताया, दोपहर २ बजे कालानी नगर से डोला निकला, जिसमें १० हजार से ज्यादा समाजजन शामिल हुए। आचार्य जिनरत्न सागर के निर्देशन में ह्रींकारगिरि तीर्थ पर अंतिम प्रक्रिया पूरी की गईं। इस दौरान मनीष सुराणा, हंसराज जैन, राजकुमार सुराणा, ललित सुराणा मौजूद रहे।
तप पूरा होने के २४ दिन पहले छोड़ा शरीर ललित सुराणा ने बताया, जैन धर्म के 2600 साल के इतिहास में यह तप करने वाली साध्वी गुणरत्नश्रीजी पहली साध्वी हैं। भगवान महावीर के बाद मुनि हंसरत्नविजयजी ने यह कठोर तप किया था। कई साधु-साध्वियों ने इसके लिए प्रयास किया, लेकिन शरीर की सीमाओं को पार नहीं कर पाए। व्रत को 16 माह यानी 16 बारी में किया जाता है। ४०७ उपवास और ७३ दिन के भोजन को मिलाकर तप ४८० दिन में पूरा होता है। साध्वी श्री ने गौतमपुरा में चातुर्मास कर १५ माह की तपस्या पूरी की और १६वें माह में प्रवेश पर जैन समाज ने अनुमोदना महोत्सव आयोजित किया था। साध्वी श्रीजी ४०७ दिन पानी पर रहने के ३८३ दिन पूर्ण कर चुकी थीं।
परिवार के २३ लोग ले चुके हैं दीक्षा
साध्वी श्रीजी का जन्म देपालपुर में मंडोरा परिवार में हुआ था। साध्वीश्री को 17 साल की उम्र में आचार्य अभ्युदय सागर ने ने दीक्षा दी थी। वे 40 वर्ष से साधु जीवन व्यतीत कर रही थीं। उनके परिवार से 23 लोगों ने दीक्षा ली हैं। उनके माता-पिता, चाचा और भाई भी साधु जीवन व्यतीत कर रहे हैं। साध्वी श्रीजी ने धार में 15 एकड़ में बन रहे भक्तामर तीर्थ का निर्माण व प्रतिष्ठा निर्विघ्न संपन्न हो इस भावना से तप शुरू किया था।
साध्वी श्रीजी का जन्म देपालपुर में मंडोरा परिवार में हुआ था। साध्वीश्री को 17 साल की उम्र में आचार्य अभ्युदय सागर ने ने दीक्षा दी थी। वे 40 वर्ष से साधु जीवन व्यतीत कर रही थीं। उनके परिवार से 23 लोगों ने दीक्षा ली हैं। उनके माता-पिता, चाचा और भाई भी साधु जीवन व्यतीत कर रहे हैं। साध्वी श्रीजी ने धार में 15 एकड़ में बन रहे भक्तामर तीर्थ का निर्माण व प्रतिष्ठा निर्विघ्न संपन्न हो इस भावना से तप शुरू किया था।