आजमगढ़. वैवाहिक समारोह के दौरान बहुत कुछ बदल गया। गुलाबी रंग के कुर्ता-पाजामा की जगह दूल्हे के शरीर पर सूट हो गया। घोड़ी और डोली की जगह लग्जरी गाडिय़ों ने ले लिया लेकिन बांस के डाल अभी भी परंपरा से बाहर नहीं हो सका। बांस के डाल का महत्व जहां का तहां बना हुआ है। सारे सामानों की खरीददारी के बाद इसे खरीदना कोई नहीं भूलता। इसके महत्व को बांसफोर भी जानते हैं। नतीजा लागत भले ही कुछ खास न हो लेकिन इसकी बिक्री पांच सौ से सात सौ रुपये में होती है।
हां, अब अंतर यह केवल यह रह गया है कि पहले इसे खरीदने के लिए बांसफोर के पास जाना पड़ता था लेकिन अब यह दुकानों पर बिकने लगा है। एक स्थान पर सिंधोरा, मौर, डिजाइनदार माला के साथ यह भी उपलब्ध हो जा रहा है। चैक स्थित दुकानदार घनश्याम बताते हैं कि ग्राहकों की सुविधा के लिए ऐसा किया जाता है।
पंडित रामप्रकाश शुक्ल निर्माेही्य कहते हैं कि परंपराओं के पीछे कुछ न कुछ खास बात जरूर होती है। डाल के साथ भी ऐसा है। बांस को वृद्धि का प्रतीक माना जाता है। बांस की खूंटी कभी स्वतरू समाप्त नहीं होती। विवाह के दौरान नववधू के लिए जो सामान ले जाए जाते हैं उसे उसी डाल में रखकर पहले पूजा होती है और उसके बाद घर का मुखिया उसे नववधू को इस कामना के साथ समर्पित करता है कि हमारे परिवार में तुम्हारे आने से धन और वंश की वृद्धि होगी। दूसरा यह कि बांस ऊंचाई को छूता है और मजबूत होता है इसलिए हम यह भी कामना करते हैं कि परिवार को मजबूती और ऊचाइयां मिलेंगी।