ऐसे करते हैं काम
संस्था के सक्रिय सदस्य सौरभ निगम, सुशील निगम, अमित गोयल, रागिनी माथुर, राकेश चंदेल और राधा श्रीवास्तव हैं। ये लोग पहले तो बस्तियों में जाकर वहां रहने वाले महिला-पुरुषों और बच्चों की काउंसलिंग करते हैं। फिर उन्हें रोजगार से जुडऩे के लिए प्रेरित करते हैं। लोग तैयार हो जाते हैं तो उनके सामने रोजगार के विकल्प बताकर रुचि अनुसार ट्रेनिंग देते हैं। इससे उनके कामकाज की समस्या हल हो रही है।
संस्था के सक्रिय सदस्य सौरभ निगम, सुशील निगम, अमित गोयल, रागिनी माथुर, राकेश चंदेल और राधा श्रीवास्तव हैं। ये लोग पहले तो बस्तियों में जाकर वहां रहने वाले महिला-पुरुषों और बच्चों की काउंसलिंग करते हैं। फिर उन्हें रोजगार से जुडऩे के लिए प्रेरित करते हैं। लोग तैयार हो जाते हैं तो उनके सामने रोजगार के विकल्प बताकर रुचि अनुसार ट्रेनिंग देते हैं। इससे उनके कामकाज की समस्या हल हो रही है।
एक हजार लोग हुए प्रशिक्षित
संस्था की मेहनत रंग ला रही है। बस्तियों में काम करने की रुचि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं और बच्चों में देखने को ज्यादा मिल रही है। सालभर में संस्था के माध्यम से अलग-अलग बस्तियों के करीब एक हजार महिला, पुरुष व किशोर रोजगार से जुड़ी विधाओं में सक्षम हो चुके हैं। 200 महिलाएं ऐसी हैं, जो खुद का काम करके अच्छा पैसा कमा रही हैं। जो आयटम उन्होंने बनाना सीख लिए हैं, उनके ऑर्डर भी बाजार से मिल रहे हैं।
संस्था की मेहनत रंग ला रही है। बस्तियों में काम करने की रुचि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं और बच्चों में देखने को ज्यादा मिल रही है। सालभर में संस्था के माध्यम से अलग-अलग बस्तियों के करीब एक हजार महिला, पुरुष व किशोर रोजगार से जुड़ी विधाओं में सक्षम हो चुके हैं। 200 महिलाएं ऐसी हैं, जो खुद का काम करके अच्छा पैसा कमा रही हैं। जो आयटम उन्होंने बनाना सीख लिए हैं, उनके ऑर्डर भी बाजार से मिल रहे हैं।
खुद जुटाते हैं साधन
बस्तियों में टे्रनिंग के दौरान सबसे ज्यादा दिक्कत मटेरियल की आती है। लोग भी इसलिए हिचकिचाते हैं कि उनके पास सामान बनाने के लिए कच्चा माल खरीदने के पैसे नहीं होते। शुरुआती दौर में ही संस्था ने इस परेशानी को समझ लिया और फिर खुद ही मटेरियल मुहैया करवाने लगी। इस पर जो खर्च होता है, उसे सदस्य मिलकर बांट लेते हैं।
बस्तियों में टे्रनिंग के दौरान सबसे ज्यादा दिक्कत मटेरियल की आती है। लोग भी इसलिए हिचकिचाते हैं कि उनके पास सामान बनाने के लिए कच्चा माल खरीदने के पैसे नहीं होते। शुरुआती दौर में ही संस्था ने इस परेशानी को समझ लिया और फिर खुद ही मटेरियल मुहैया करवाने लगी। इस पर जो खर्च होता है, उसे सदस्य मिलकर बांट लेते हैं।