-शेखर गिरि, टोरी कार्नर टोरी से मनमुटाव हुआ तो बनाया रसिया टोरी कॉर्नर से निकलने वाली गेर में कुछ लोगों का मनमुटाव ही रसिया की गेर का जन्मदाता है। इसके बाद वर्चस्व की लड़ाई के चलते दो गुट बन गए। मेरे पिता ने जो परम्परा शुरू की, उसे में पिछले 11 साल से निभा रहा हूं। जिस तरह से पहले गेर निकलती थी, वैसी ही आज भी निकाली जा रही है। पुरानी खुशबू को कायम रखने का प्रयास किया जा रहा है। आज भी गेर में तांगे, रंगाडे और ठेले शामिल किए जाते हैं।
-राजपाल जोशी, रसिया कार्नर हाथी पर बैठकर निकलते थे रंग खेलने पहले हाथी, घोड़े और ऊंट के साथ बैलगाड़ी पर बैठकर लोग रंग खेलने निकलते थे। चौराहों पर कड़ाव में रंग घोला जाता था और उसमें वहां से निकलने वालों को उसमें डुबो दिया जाता था। रंग से नहाने के बाद गेर की शुरुआत होती थी। भांग और ठंडाई से स्वागत होता था। इत्र लगाया जाता था। अब गेर में मेटाडोर, ट्रैक्टर, डीजे के साथ मिसाइल और रंग उड़ाने वाली तोप का उपयोग शुरू हुआ। गेर की शुरुआत १९६७ में हुई।
-हेमंत सेठी, वरिष्ठ व्यापारी होली खेलने एकत्र होने वालों की बनी गेर शुरू में तो लोग होली खेलने के लिए एकत्र होते थे। उसके बाद समूह बढ़ता गया और रंग खेलने के बाद राजबाड़ा पर जाया करते थे, जिसने गेर का रूप ले लिया। टोलियों में पहुंचने वाले क्षेत्रों के लोगों ने इसे गेर का रूप दे दिया। रंग-गुलाल से रंगते थे। गेर का स्वरूप बढ़ता जा रहा है। बड़ी-बड़ी गेर में अब लोगों की संख्या के साथ साधन भी बढ़ गए हैं। हाथों से पिचकारी छोडक़र कई मंजिलों तक फेंकते थे रंग।
-ओम प्रकाश शास्त्री, रामाशाह जैन मंदिर ट्रस्टी बैलगाड़ी पर कोठी रखकर जाते थे पिछले 40 सालों से गेर में शामिल होते आ रहे हैं। पहले बैलगाड़ी पर कोठियों में रंग घोलकर रखा जाता था और लोगों को रंगा जाता था। कोई जबरदस्ती नहीं होती थी। मैंने खुद ने 30 साल पहले हाथी पर बैठकर होली खेली है। गेर में हमेशा शालीनता रहती थी। भले ही पहले शहर की जनसंख्या कम थी पर एकमात्र गेर निकलने के कारण आसपास के शहरों से भी लोग रंगपंचमी पर यहां आते थे।
-राजकुमार अग्रवाल, पश्चिमी अग्रवाल समाज सालभर बेसब्री से होता था गेर का इंतजार रंगपंचमी सद्भावना का प्रतीक रही है। हर वर्ग और समाज के लोग एक साथ खेलते थे। पिछले ६५ साल से रंगपंचमी पर गेर में शामिल होते रहे हैं। पहले और अब में काफी बदलाव आया है। सालभर रंगपंचमी और गेर का ब्रेसब्री से इंतजार रहता था। घर के बाहर रंगीन झंडे लगाए जाते थे। किसी प्रकार की कोई अभद्रता नहीं होती थी। पहले तो पिचकारियों से रंग डाला जाता था, अब तो चार मंजिला भवनों तक रंग फेंक रंगा जा रहा है।
-छगनलाल यादव गैर को रंग लगाने पर पड़ा गेर नाम गेर शरू होने के पहले जगत डूब कढ़ाव में लोगों को भिगोया जाता था और फिर बैल गाड़ी और ठेले पर रंगो से भरे ड्रम रखे जाते। हाथी-ऊंट, गधे के साथ बैंड-बाजे पर गेर लोगों को रंगने निकलती थी। इसका नाम गेर पडऩे के पीछे की कहानी भी यह है कि अनजाने लोग (गैर) को रंग लगाया जाता था। जिससे कोई जान-पहचान नहीं होती थी। रंगो की मस्ती में अपने पराए सभी गैर हो जाते थे। इसलिए इसका नाम गेर पड़ा।
-प्रेम स्वरूप खंडेलवाल