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श्रीकृष्ण के समक्ष रुक्मणि का त्याग सत्यभामा से जीता

locationजबलपुरPublished: May 03, 2019 12:49:59 am

Submitted by:

Sanjay Umrey

दयोदय तीर्थ में बोले आचार्यश्री विद्यासागर

aachary vidhyasagar

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जबलपुर। एक बार की बात है श्रीकृष्ण बैठे हैं, प्रसन्नता का वातावरण है। आजू-बाजू रुक्मणि और सत्यभामा बैठी हैं। ताम्बूल का भी प्रयोग हो रहा है। कृष्णजी सुपारी सरोंते से काट रहे थे, तभी उनकी उंगली कट गई और खून की धार निकलने लगी। रुक्मणि और सत्यभामा ने देखा तो दोनों एकदम से विचलित हो गईं। सत्यभामा खून की धार रोकने कपड़ा लाने दौड़ पड़ी लेकिन रुक्मणि ने अपनी कीमती साड़ी को फाडकऱ उंगली पर बांध दिया। इस तरह धार बंद हो गई। इतने में सत्यभामा कपड़ा लेकर आई तो देखा काम हो चुका है। देखने वाली बात है कि दोनों पत्नियां हैं लेकिन विषय और कषायों की सामग्री मुख्य होती है। इनको छोडऩे के बाद ही संकल्प आता है, जिसमें भोगने का भाव नहीं होता। त्याग का भाव आता है तो जीवन धन्य हो जाता है। यहां श्रीकृष्ण के समक्ष रुक्मणि का त्याग सत्यभामा से जीत गया।
उक्त उद्गार दयोदय तीर्थ तिलवाराघाट में संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर महाराज ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि जब तक जीवन में त्याग का भाव नहीं आता, जीवन में धन्यता का समावेश नहीं होता। इसीलिए परीक्षा की घड़ी में हमेशा त्याग का भाव ही विजयी होता है। जीवनपर्यंत के लिए जो यह सूत्र कीमती है। जो अध्यात्मवृत्ति वाला होता है, उसके लिए बंध और निर्जरा के लिए कारण बाधक नहीं होता। श्रावक जो करता है, वह एक प्रकार से दोष लगाता है, क्योंकि उसका पूरा त्याग नहीं होता।

आचार्यश्री ने कहा कि यदि विष की एक बूंद समुद्र में डालने पर भी समुद्र पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मुनि महाराज जो भगवान का भाव-भक्ति का भाव कर लेते हैं, वही काफी होता है। श्रीफल अर्पण भी अपने मस्तिष्क को चरणों में रखने के समान है। गृहस्थ को कितने भी नारियल चढ़ा दो तो भी फल नहीं मिलेता लेकिन मुनि को श्रीफल चढ़ाने का प्रभाव लाखों-करोड़ों रत्नों के श्रीफल के समान होता है।

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