जबलपुरPublished: Sep 14, 2021 06:46:37 pm
Sanjay Umrey
आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने कहा
Aachary Vidhyasagar Maharaj in Jabalpur
जबलपुर। चातुर्मास पर नगर में विराजमान आचार्यश्री विद्यासागर ने कहा कि हमारी मुक्ति की इच्छा है लेकिन हम मोक्ष की इच्छा न करें। न मोक्ष की इच्छा रखें और न लाभ की इच्छा रखें। मोक्ष की इच्छा से नहीं मोह का त्याग करने से मोह का छय होता है। मृत्युंजय वही बनता है जो मृत्यु से नहीं डरता। मरना तो निश्चित है लेकिन अनिश्चितकाल में हुई मृत्यु अकाल मृत्यु का कारण बनती है।
जिसके शत्रु नहीं हैं वह वीतरागी–
उन्होंने समझाया कि सभी तरह के कषाय मानव जीवन में अहितकारी होते हैं। क्षमा के पास जो क्षमता है वही मार्जव, आर्जव, सत्य, शौच धर्म के पास भी है। यह 10 धर्म, रत्नात्रय धर्म, अहिंसा परमो धर्म आदि का हमारे पूर्व आचार्य ने विभिन्न विचारों में उल्लेख किया है। यदि सामने वाला आपको क्रोध दिला रहा है, परंतु आप गुस्सा न करें। आप शांत भाव बनाकर रखें। आप उसे क्षमा भाव से क्षमा करें। यह एक वीर पुरुष की वीरता का परिणाम है। क्षमा क्षत्रियों का भी धर्म है। वीर के हाथ में हमेशा तीर होते हैं। जिसका वह कमजोर पर प्रयोग नहीं करता। वीरत्व वह है जो कषाय पर प्रहार कर उसे समाप्त करे या समाप्त होने के द्वार पर ले जाए। संसार में जिसके शत्रु नहीं हैं वह ही वीतरागी है।
पाप की श्रेणी में है कषाय–
आचार्यश्री ने कहा कि दो कषाय राग के और दो कषाय द्वेष के होते हैं। आपको किसी दूसरे की वस्तु के प्रति राग हो गया। उसकी वस्तु आप उठाने का प्रयास करते हैं। वस्तु के प्रति राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, माया, मोह ही तो कषाय हैं। सभी कषाय को आचार्यों ने पाप की प्रकृति में रखा है। इनकी आप स्वप्न में भी प्रशंसा करते हैं तो इसका दोष लगता है। यदि यह कषाय अंकुरित होने को है उसे उसी समय समाप्त कर दिया जाए तो यह जीवन में कष्ट नहीं देंगे। सिर्फ खेद व्यक्त कर देने से दया नहीं आती कषाय नहीं मिटते। जो भी व्यक्ति राग- द्वेष से ऊपर उठ जाते हैं और वह अज्ञानता बस कषाय करते हैं, जान कर नहीं।
मोक्ष भीतर से उत्पन्न होता है–
उन्होंने कहा कि अनंत काल के लिए आपने पुरुषार्थ किया है वही साथ चलेगा। लोभ के कारण यदि आपने स्वाध्याय कर लिया है तो भी वह पुण्य नहीं देता। यदि आपने लोभ किया हैं तो यह पुण्य नहीं पाप का कारण है। मृत्यु से डरने वाला मृत्यु से बच नहीं सकता। अंतिम मरण ही तो मोक्ष दिलाता है। अन्यथा पुनर्जन्म प्राप्त हो जाता है और मनुष्य जीव- जंतु जन्म मृत्यु के चक्र में घूमते रहते हैं।
आचार्यश्री कहते हैं कि संसारी को हमेशा मृत्यु से भय होता है जबकि वीतरागी स्वस्थ और प्रसन्न बैठे रहते हैं।
लोभ से बचें–
आपको लोभ नहीं करना चाहिए। यदि लोभ करते हैं तो धर्मभावना छूट जाती है। जब व्यक्ति स्वर्ग जाता है और वहां भगवान के समवसरण के दर्शन करता है, तब उसे समझ में आता है कषाय के छय के कारण यह आनंद प्राप्त हुआ। किसी के प्रति राग- द्वेष नहीं रखना चाहिए। यही मोक्ष मार्ग है। एक गांठ छोड़ते नहीं, उसके ऊपर दूसरी और तीसरी इतनी गांठें लगा देते हैं कि आपस में मिलना मुश्किल हो जाता है। गांठों को छोड़ दो। निर्मोह अवस्था में मुक्ति मिलने पर आनंद प्राप्त होगा। हमें धर्म का लोभ करना चाहिए, विषयों का लोभ नहीं करना चाहिए। आचार्यश्री अपने मुनि संघ के विषय में कहते हैं कि मूल से भी शाखाएं बड़ी हो जाती हैं, यह होना भी चाहिए। शुचि धर्म पावन परिणाम का लाभ है, लोभ समाप्त करने पर सुचिता रहे तभी परिणाम निर्मल होते हैं।
आचार्यश्री को आहार देने का सौभाग्य गुडग़ांव के नवीन जैन एवं निर्मल जैन को प्राप्त हुआ।