भावों में है भिन्नता
आचार्यश्री ने कहा कि यह मनुष्य गति है। एक मनुष्य की आकृति दूसरे की आकृति से मिलती भी नहीं है। शरीर में यह भिन्नता है, तो भावों की भिन्नता होगी ही। इन भावों की उत्पत्ति में कर्म प्रधानता अवश्य रहती है। तीर्थंकर भगवान में असंख्य प्रकार के तीर्थंकरों की प्रकृति का बंध होता है, जब उनको योगनिद्रा करना होता है। ऋषभ भगवान को लगभग एक महीने लगे योग निंद्रा में। तीर्थंकर का वैभव अपने आप में देखने लायक था। भगवान महावीर को इस काल में कम समय लगा। भगवान ऋषभदेव को ज्यादा समय लगा। लोग कहते हैं, वह बड़े हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि उनकी 500 धनुष बराबर काया थी। कोई कहेगा इतनी बड़ी काया थी इसलिए समय लगा। इसलिए उनकी कर्मों की गिनती ज्यादा होगी। इसलिए उसे समाप्त करने में एक महीने का समय लग सकता है। दूसरे ने यह सोचा इनके कर्म ऐसे होंगे जिनकी संख्या बहुत अधिक होगी। इसलिए समय ज्यादा लगा।
घड़ी पकडऩे का घमंड न करें
उन्होंने कहा कि जो सच्चे श्रवण होते हैं, वे समयसार को जानने वाले होते हैं। वे प्रार्थना करते रहते हैं कि भगवान किसी को भी हम पकड़ नहीं सकते। लेकिन, अंतरात्मा से हमारे कर्म के उदय से पकड़ में आ गया है। अब इसका निस्तार कैसे होगा? कर्म का जब तक उदय रहेगा कर्म का बंध ही हमारे समझ में आता है। ना प्रकृति होती है नहीं किसी की कोई स्थिति आती है। यही सच्चा धर्म ध्यान है। घड़ी चलती नहीं है। उसके घूमने से ही हम काल के अनुभव का अनुमान कर लेते हैं। इसी को नियमित नैमित्तिक सम्बंध कहते हैं। घड़ी का कांटा काल से उत्पन्न नहीं हुआ और घड़ी को काल की जानकारी भी नहीं है। लेकिन, किसी किसी के मन में यह भाव आता है कि मैंने समय काल पकड़ लिया है।
भारतीय वायु सेना के बहादुर कैप्टन अभिनदंन के परिजन ने आचार्य श्री से आशीर्वाद लिया।