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जबलपुर

अपने कर्मों को स्वयं भोगना पड़ता है

दयोदय तीर्थ तिलवाराघाट में चातुर्मास कर रहे संत आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कहा

जबलपुरOct 11, 2021 / 06:32 pm

Sanjay Umrey

Aachary Vidhyasagar Maharaj in Jabalpur

Aachary Vidhyasagar Maharaj in Jabalpur

जबलपुर। दयोदय तीर्थ तिलवाराघाट में चातुर्मास कर रहे संत आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कहा कि जिस तरह गेहूं के साथ घुन भी ***** जाता है, उसी तरह आपके अच्छे कार्य आपके किए गए बुरे कार्यों के बीच दब कर रह जाते हैं। आपको अपने कर्मों को स्वयं भोगना पड़ता है कोई भी उसमें साथ नहीं दे सकता। इसलिए जहां तक हो सके सदैव सदकर्मों में जीवन लगाओ।
रोक सकते हैं गलत कर्म
उन्होंने आगे कहा कि संसारी प्राणी अज्ञानता की दशा में जब कार्य करता है तो बहुत से कर्म बंध होते हैं। उस समय उसकी अज्ञानता तीव्र होने के कारण कर्म बंध बंधते जाते हैं। लेकिन जब अज्ञान की दशा से ज्ञानता की ओर वापस लौटता है, तब वह उस अज्ञानता में किए गए कार्यों को वापस सम्भालने, सुधारने की कोशिश करता है। जो कार्य अज्ञानता बस किए गए हैं, जो गलत कार्य हुए हैं उसे समाप्त करने का विचार उसके मन में आता रहता है। भविष्य के लिए उसका मन कहता है कि मैं अब अज्ञानता बस कोई गलत कार्य नहीं होने दूंगा। गलत कार्य भी नहीं करूंगा। यही आत्मा की कर्म पर विजय है। हम अपने गलत कर्मों को अपने भावों द्वारा पूरी शक्ति लगाकर होने से रोक सकते हैं।
किसी को नहीं छोड़ती कर्मों की मार
आचार्यश्री ने कहा कि हमारे मन की आवाज हमारे, भावों की आवाज कहती है कि अब में गलत कार्य नहीं होने दूंगा। जिस तरह उत्तम क्षमा या मिच्छामी दुक्कड़म कहने से कुछ नहीं होता जब तक वह पूरे मनोभाव से, दिल से न कहा जाए। इसी तरह बुद्धि पूर्वक किए गए गलत कार्य भी क्षमा योग्य नहीं होते। यदि आप जानबूझकर गलत कार्य करते हैं तो उसके लिए आपको आंखों का पानी बहाना ही पड़ता है। जब आपकी आंखों में पानी आता है तब मन को कठोर करना होता है। इस बात पर विचार करना ही पड़ता है या कहा जाए माथा पटकना पड़ता है कि मैंने किसके साथ क्या- क्या अनर्थ किया। वैसे कहा जाता है कि जब तक स्वयं पर नहीं गुजरती तब तक अर्थ- अनर्थ में भी समझ नहीं आता। यह भी समझ नहीं आता कि कर्मों की मार क्या होती है। विषयों- कषायों की मार इतनी भारी होती है कि वह किसी को नहीं छोड़ती।
पश्चाताप ही वीरता
आचार्यश्री ने समझाया कि जब एक व्यक्ति किसी के साथ अनर्थ करता है तो उसके परिणाम पूरे परिवार को भोगने पड़ते हैं। कटु से कटुता बढ़ती है। इसमें मिठास नहीं हो सकती। फिर भी यह संसारी प्राणी कटुता में मिठास की खोज करता रहता है। यह नहीं सोचता कि वह कैसा है। दूसरे से हमेशा अच्छे परिणामों की उम्मीद करता है। बुरे कर्म और परिणामों से बचने का एक ही रास्ता है वह है तीनों ऋतु में उपासना करो। ऋतुओं की विषमता का ख्याल न करते हुए भी ध्यान लगाओ। अपने किए गए सभी कार्यों का चिंतन करो। तभी सम्भव है कि कर्म बंधन से मुक्ति मिले। अपने किए गए कर्मों पर पश्चाताप करो, यही वीरता है। अभी तो जो काल आने वाला है उसे दुखमा- दुखमा काल कहते हैं। पंचम काल इतना बुरा भी नहीं है पर आप अपने कर्मों से बच नहीं सकते।

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