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Thalassemia Day : ब्लड कम्पोनेंट मशीन की कमी से जूझ रहा यह अस्पताल

locationजबलपुरPublished: May 08, 2019 01:58:17 am

Submitted by:

reetesh pyasi

इलाज के लिए अस्पताल हर माह पहुंचते हैं डेढ़ सौ से ज्यादा पीडि़त
 

Thalassemia

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जबलपुर। थैलेसीमिया एक गम्भीर बीमारी है। पीडि़त को हर महीने ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरूरत पड़ती है। बाहरी रक्त बार-बार चढ़ाने में गरीब परिवार सक्षम नहीं होते हंै। इससे बच्चे की असमय मौत का खतरा रहता है। इस बीमारी से पीडि़त सबसे ज्यादा बच्चे विक्टोरिया जिला अस्पताल में पहुंच रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक थैलेसीमिया पीडि़त औसतन करीब डेढ़ सौ बच्चे हर महीने खून चढ़वाने के लिए अस्पताल में भर्ती होते हैं, लेकिन अस्पताल में न तो थैलेसीमिया पीडि़त बच्चों के लिए अलग से कोई वार्ड है और न ही इन्हें चढ़ाए जाने वाले खून से कम्पोनेंट अलग करने के लिए विशेष उपकरण है। सुविधाओं के अभाव में कम्पोनेंट मशीन से ब्लड के लिए पीडि़तों के परिजनों को एल्गिन अस्पताल तक जाना पड़ता है।
संक्रमण से बचेंगे, दिल को नुकसान नहीं होगा-
थैलेसीमिया होने पर शरीर में हीमोग्लोबिन की मात्रा कम हो जाती है। कम्पोनेंट मशीन से रक्त में शामिल अन्य कम्पोनेंट को पृथक करके सिर्फ हीमोग्लोबिन वाला रक्त पीडि़त को चढ़ाया जाता है। चिकित्सकों के अनुसार रक्त सीधे चढ़ाने पर अन्य कम्पोनेंट का वॉल्यूम शरीर में बढ़ जाता है। इससे दिल पर भार बढ़ जाता है। सामान्य वार्ड में बच्चों को भर्ती किए जाने से रक्त की कमी के कारण कमजोर बच्चों के अन्य संक्रमण की चपेट में आने का खतरा होता है। थैलेसीमिया पीडि़तों के लिए काम कर रही संस्था थैलेसीमिया मुक्त मप्र समिति का मानना है कि विक्टोरिया में कम्पोनेंट मशीन और पृथक वार्ड होने पर पीडि़तों को बेहतर उपचार उपलब्ध हो सकेगा।
सिर्फ दो तरीके से रोक सकते हैं बीमारी –
चिकित्सकों के अनुसार यदि बच्चे का हीमोग्लोबिन बार-बार कम हो रहा है तो थैलेसीमिया की जांच करना चाहिए। सेकेंड प्रेग्नेंसी प्लान कर रहे हैं तो उन्हें गर्भ धारण करने के दो महीने में जांच कराना जरूरी है। शादी से पहले लड़का-लड़की के ब्लड टेस्ट करवाएं। जांच में दोनों के रक्त में माइनर थैलेसीमिया पाया जाए तो बच्चे को मेजर थैलेसीमिया होने की आशंका बन जाती है। ऐसे में महिला के गर्भ में पल रहे बच्चे की दो माह में जांच होना चाहिए। यदि शादी के बाद माता-पिता को पता चले कि शिशु थैलेसीमिया से पीडि़त है तो बोन मेरो ट्रांसप्लांट पद्धति से शिशु के जीवन को सुरक्षित किया जा सकता है।
जिला अस्पताल में थैलेसीमिया पीडि़त बच्चों के लिए अलग वार्ड की योजना है। इसे जल्द तैयार किए जाने के प्रयास हैं। बेहतर उपचार के लिए आधुनिक सुविधाएं भी जुटाई जा रही हैं।
डॉ. एमएम अग्रवाल, सीएमएचओ
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