कहें, तो यह बड़ी बात है
बुकर मिलने पर शहर के कुछ लोग मानते हैं कि एक लिहाज से यह बड़ी बात है। ‘रेत समाधिÓ अंग्रेजी में ही सही, दुनिया के सामने पहुंची है। इसका फायदा यह होगा कि प्रकाशकों का ध्यान गम्भीर साहित्य की ओर बढ़ेगा। बिकने में ज्यादा यकीन रखने वाले भरोसे पर ध्यान देंगे। वे भावों को भी महत्व देंगे। इससे हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद बढ़ेगा। भारत में भी अनुवादकों के प्रति सोच बदलेगी। शहर के कुछ लेखकों का दर्द सामने आया कि साहित्यिक अनुवाद के लिए प्रकाशन संस्थान नाममात्र का पैसा देते हैं। अधिकततर जगह अनुवादक का नाम भी सामने नहीं लाया जाता। अब शायद अनुवाद करने वालों को महत्वपूर्ण माना जाने लगे। लेखकों का एक वर्ग यह भी मानता है कि रेत समाधि को बुकर मिलने पर हिंदी के साथ ही सभी भारतीय भाषाओं का मान बढ़ेगा। अच्छा साहित्य सभी भाषाओं में रचा जा रहा है। जरूरत, यह है कि उसे अंग्रेजी के चश्मे से देखना बंद किया जाए।
महत्वपूर्ण यह भी है
शहर के रचनाकारों का मानना है कि ‘रेत समाधि को हिंदी में रचा गीतांजलि श्री ने। इसमें भाव उन्होंने दिया। आम लोगों के जीवन से जोड़ा। समाज के ताने-बाने को शामिल किया। एक सुंदर साहित्य रचा। लेकिन, इसे विश्व स्तर पर ले गईं इसकी अंग्रेजी अनुवादक डेजी रॉकवेल। देखा जाए, तो मूल लेखक के भीतर तक उतरना किसी भी अनुवादक के लिए आसान नहीं होता। इन अर्थों में डेजी रॉकवेल ने कमाल कर दिया है। वे अमेरिका में रहती हैं। फिर भी हिंदी साहित्य समेत कई भाषाओं और साहित्य पर पकड़ रखती हैं। जानने वाली बात है कि उन्होंने अपनी पीएचडी उपेंद्रनाथ अश्क के उपन्यास ‘गिरती दीवारें’ पर की है। शहर के कई लेखकों को उम्मीद है कि अब उनकी किताबें भी प्रकाशक अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में अनुवादित कराने की पहल करें। शहर के लेखक मानते हैं कि अनुवाद की परम्परा पहले से है। इसमें अब शायद तेजी आ जाए। लेखकों का भी भला हो जाए।
‘यह शोर अच्छा नहीं लग रहा
शहर में बुकर के पक्ष में खड़े लोगों के बीच कुछ ऐसे भी हैं, जो इसकी बुराई भी कर रहे हैं। हिंदी के कुछ विद्वानों ने यहां तक कहा कि ‘रेत समाधिÓ को शहर के गिनती के लोगों ने भी नहीं पढ़ा होगा। लेकिन, बुकर मिलने पर तमाम लोग इस तरह खुश हो रहे हैं, मानो हिंदी इसी के इंतजार में बैठी थी। कई लोगों ने कहा कि वे ‘बुकरÓ पुरस्कार को सही ही नहीं मानते। क्योंकि, यह लुटेरी कंपनी ‘बुकर समूहÓ के नाम पर दिया जाता है। कुछ तो इतने गुस्से में हैं कि यह भी कहने से नहीं हिचकिचाए कि दो सौ साल पहले किसान और मजदूरों के चूसे गए खून से लेकर आज नागरिकों की जासूसी करने से बनाया हुआ पैसा ही बुकर जैसी साहित्यिक चैरिटी में लग रहा है। हिंदी साहित्य के एक जानकार ने कहा उनका नाम लिखने की जरूरत नहीं है। लेकिन, सच्चाई यही है कि रेत समाधि को बुकर मिलने से शहर के हिंदी लेखकों को कोई फायद नहीं होगा।
अनुवाद से विश्वव्यापी पहचान भी मिलती है
अनुवाद केवल भाषांतर है। मूल थीम तो हिंदी वाली ही है। भारत के बहुत से ग्रंथों का विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। अनुवाद से मूल भाषा में लिखे गए ग्रंथ या पुस्तक का महत्व कम नहीं होता। सभी लोगों के लिए मूल भाषा सीखना सम्भव नहीं है। अत: ‘रेत समाधि भी अनूदित होने के बाद भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना मूल भाषा में। कई बार मूल ग्रंथ को अनूदित भाषा विश्व व्यापी पहचान दिलाने में सफल होती है। स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में हिंदी अथवा बांग्ला में भाषण देते, तो क्या उनकी विश्व व्यापी ख्याति हुई होती….?
निरंद सिंह नीर, शिक्षक-कवि
कहीं यह खानापूर्ति तो नहीं?
ये ठीक ऐसा ही है कि एक ट्रांसपरेंट/पारदर्शी डिब्बे में कुछ चुनिंदा लोगों की ओर से चुनी गई पर्ची डाल दी जाए। फिर उसमें कोई हाथ डाले और जिसके नाम की पर्ची निकले उसे ‘सम्मानित, तयशुदा पुरुस्कारÓ दे दिया जाए। साहित्य संसार इतना विस्तृत है कि असंख्य रचनाकारों ने अनोखी कृतियां रचीं। ये पुरस्कार तो हर महीने एक के बाद एक हकदार रचनाकार को मिलते रहना चाहिए। बात हिंदी या अंग्रेजी भाषा की नहीं, बात तो किताबें बांचने की है। चंद किताबें बांचकर एक बड़ा पुरस्कार दे दिया जाता है, लो हो गई खानापूर्ति।
जहीरुद्दीन साहिल, लेखक-कवि-शायर
हर्ष के साथ चिंतन का विषय
हिंदी भाषा के लिए भले यह ख़ुशी के क्षणों में गिना जाए, लेकिन दुख का विषय है कि हिंदी साहित्य में अब तक ‘रेत समाधि आने तक क्या शून्यकाल की स्थिति रही रचनाधर्म में? अनगिनत महान रचनाएं और रचनाकारों का साहित्यिक तप रहा है। यह हर्ष का विषय होने के साथ चिंतन का विषय है। गीतांजली श्री की इस कृति को अनुदित डेजी रॉकवेल ने किया, तो साधुवाद उनके लिए ज्ञापित करना चाहिए। आशा करनी चाहिए कि हिंदी साहित्य पर पश्चिम का ध्यान आकर्षित हो तो, इतना विलम्ब नहीं होगा अगला अवॉर्ड आने में।
अनुराग त्रिवेदी ‘एहसास, लेखक-एक्टिविस्ट