जबलपुर

मिट्टी के चूल्हे में पकाना, कांसे, पीतल के बर्तनों में भोजन,

शहरी चकाचौंध के प्रति दीवानगी के दौर में संस्कारधानी के एक युवक ने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद ग्रामीण परिवेश और सांस्कृतिक विरासत को संजोने, संवारने का बीड़ा उठाया है। शहर से 30 किलोमीटर दूर बसे इंद्राणा गांव में बना उनका आश्रम में मिट्टी के चूल्हे में खाना पकाना, कांसे, पीतल आदि धातु के बर्तनों में भोजन, मिट्टी के बने घरों में रहने का जीवंत अहसास कराया जाता है।

जबलपुरApr 17, 2023 / 11:56 am

Rahul Mishra

ग्रामीण परिवेश और सांस्कृतिक विरासत,

संस्कृति और प्राचीन ग्रामीण परिवेश में जीने का दिया जा रहा प्रशिक्षण, देश-विदेश से आते हैं नौजवान

जबलपुर । शहरी चकाचौंध के प्रति दीवानगी के दौर में संस्कारधानी के एक युवक ने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद ग्रामीण परिवेश और सांस्कृतिक विरासत को संजोने, संवारने का बीड़ा उठाया है। शहर से 30 किलोमीटर दूर बसे इंद्राणा गांव में बना उनका आश्रमनुमा आवास गांव की संस्कृति को सहेजने और संवारने में जुटा है। साढ़े तीन एकड़ क्षेत्र में फैला यह जीविका आश्रम ग्रामीण संस्कृति का मॉडल तो है ही, लोगों को प्राचीन ग्रामीण परिवेश में जीने का प्रशिक्षण भी दे रहा है। दूर-दूर से युवा, बुद्धिजीवी व विदेशी पर्यटक भी यहां प्राचीन भारतीय ग्राम्य जीवन को जानने और इसके तौर-तरीकों को समझने पहुंचते हैं। जीविका आश्रम में गुजरे जमाने की तरह ही मिट्टी के चूल्हे में खाना पकाना, कांसे, पीतल आदि धातु के बर्तनों में भोजन, मिट्टी के बने घरों में रहने का जीवंत अहसास कराया जाता है। साथ ही मिट्टी, लकड़ी व बांस से विभिन्न उपयोगी वस्तुएं व कलाकृतियां बनाने का प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है।

 


नौकरी छोड़ शुरू किया आश्रम-
आश्रम का संचालन आशीष गुप्ता करते हैं। उन्होने साइंस कालेज से स्नातक की उपाधि लेने के बाद ग्रामीण प्रबंधन में डिप्लोमा किया । वे एक निजी वित्तीय कंपनी में काम करते थे। इसी दौरान उनकी भेंट तेलंगाना के अदिलाबाद जिले में प्राचीन भारतीय संस्‍कृति को संरक्षित करने में जुटे गुरु रविंद्र शर्मा से हुई। शर्मा के सान्निध्य ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। नौकरी छोड़कर वे वापस जबलपुर आ गए। जिला मुख्‍यालय के पास इंद्राणा में 2015 में उन्होंने जमीन खरीदी और जीविका आश्रम निर्माण किया। आशीष की धर्मपत्नी कहती हैं कि यहां टीवी, फ्रिज जैसी दैनिक आवश्यकताओं के बिना रहना मुश्किल लग रहा था लेकिन अब ऐसा नहीं लगता है।
ग्रामीणों ने निकाला, आश्रम ने सजाया-
गुप्ता का कहना है कि गांव में आधुनिकता के चलते मजबूत और नायाब चीजों को ग्रामीण कचरा समझकर हटा रहे हैं। । मजबूत लकड़ी के और नक्काशीदार घरों की चौखट और दरवाजे निकाल कर उनकी जगह प्लाई के दरवाजे लगा रहे हैं। ऐसे लोगों से वे दरवाजे, बर्तन, बैलगाड़ी या अन्य सामग्री जुटा लेते हैं और उसे अपने संग्रहालय में जगह देते हैं। संग्रहालय में गांव के प्राचीन मिट्टी के चूल्हे, पत्थर के खलबट्टे, सिल, चक्‍की, लालटेन जैसे कई सामान हैं जो आमतौर पर अब नजर नहीं आते।
हस्तकला का प्रशिक्षण भी-
जीविका आश्रम में ग्रामीण हस्तकलाएं भी सिखाई जाती हैं। मिट्टी, लकड़ी और बांस का सजावटी व उपयोगी सामान बनाने जैसे कामों का प्रशिक्षण दिया जाता है। आशीष बताते हैं कि आश्रम में आकर रहने वाले अपनी क्षमता के अनुरूप सहयोग देते हैं, इसी के जरिए आश्रम के संचालन होता है।
ग्राम्य जीवन सीखने आते हैं नौजवान –
आश्रम में हो रहे काम को देखने और शोध करने के लिए युवा पीढ़ी बड़ी संख्या में पहुंचती है। आश्रम पहुंची देहरादून की आईटी प्रोफेशनल इशनिश यहां मिट्टी से फर्श बनाने का प्रशिक्षण लेने आई थीं। उन्हें इंटरनेट और परिचितों से आश्रम की जानकारी मिली। वे खुद दूसरे साथियों के साथ मिट्टी को कूटकर बारीक बनाते हुए दिखीं। उन्‍होंने फर्श बनाने के लिए गीली मिट्टी में भूसे को पैरों की मदद से मिलाया। मैसूर के अभिलाष व हैदराबाद के आर्किटेक्ट धीरज ने कहा कि उन्हें यहां ग्रामीण जीवन की विविधताओं के बारे में जानकारी हासिल हुई।

विदेशी कहते हैं अद्भुत-
आश्रम में विदेश से भी बड़ी संख्या में सैलानी आते हैं। जर्मनी के वुर्जबर्ग शहर से आईं बेट्टीना मेरिआने कहती हैं कि भारतीय जीवनपद्धति वाकई अद्भुत है । अजमेर से आये इंजीनियर प्रकर्ष बताते हैं कि पहले ग्रामीण संस्कृति में किसान, कारीगर पुराने तौर तरीकों से काम करते थे, आज उनकी जगह मशीनों ने ले ली है। इससे विरासत खत्म हो रही है। जीविका आश्रम में इसी विरासत को आज के दौर में उपयोगी बनाने का काम हो रहा है।

बिजली है, टीवी नहीं-
आश्रम में आशीष गुप्ता परिवार के साथ रहते हैं। निर्माण में कांक्रीट की जगह ईंट और मिट्टी और बांस-बल्लियों का उपयोग हुआ है। सिर्फ जरूरत के लिए यहां बिजली है लेकिन मनोरंजन के लिए टीवी नहीं । फ्रिज और वाशिंग मशीन जैसे उपकरण भी नहीं हैं। हर किसी को अपनी दिनचर्या से लेकर सारे काम खुद करने होते हैं। जैविक तरीकों से सब्जियां उगाई जाती हैं। चलन से बाहर हो चुके कांसे, पीतल और तांबे के बर्तन भोजन के लिए उपयोग में लाये जा रहे हैं। चूल्हे में भोजन पकाने के लिए भी इन्हीं बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता है। जमीन पर आसन लगाकर ही भोजन होता है। इससे पहले वैदिक मंत्रों का उच्चारण अनिवार्य है।

संघ प्रमुख ने किया सम्मानित-
बीते दो वर्षों से आशीष अपने इसी आश्रम की वजह से चर्चा में है। 21 नवंबर 2021 को दिल्‍ली की संत ईश्वर फाउंडेशन नामक संस्था ने उन्‍हें सम्मानित किया । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक डा. मोहन भागवत ने यह सम्मान दिया। इसके बाद से इस आश्रम की ख्याति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गई है।

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