राष्ट्रपति भवन में किया प्रदर्शित
विवि के बायो साइंस विभाग में स्थापित बायो डिजाइन सेंटर ने दो साल पहले ही भूसे के सफल निष्पादन की योजना तैयार की थी। हैरानी की बात है कि भूसे के सफल निष्पादन की पूरी प्रक्रिया को राष्ट्रपति भवन में प्रदर्शित किया गया था। दो साल पहले सन २०१५ में राष्ट्रपति भवन में प्रदर्शित किए जाने के बावजूद इस पर गौर नहीं किया गया। नतीजा यह निकला कि देश की राजधानी अब तक भूसे के विनष्टिकरण की घातक प्रक्रिया और उसके परिणाम से जूझ रही है। ईको-क्रेडल का विकल्प
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय में सेंटर के डायरेक्टर एसएस संधू ने बताया कि उनके निर्देशन में ही भूसे के निष्पादन पर शोध कार्य पूरा किया गया था। संधू ने बताया कि थर्माकोल को पर्यावरण की सेहत के लिए नुकसानदेह पाए जाने के बाद ईको-क्रेडल नाम से उसका विकल्प खोजा गया। यह विकल्प भूसे के निष्पादन के लिए भी है। ईको-क्रेडल की रिसर्च टीम में डायरेक्टर एसएस संधू के अलावा डॉ.सुनील राजपूत, डॉ.रविन्द्र अहिरवाल, लोकनाथ देशमुख, अतीत मिश्रा और समीहा तिवारी शामिल थीं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से देशभर में शोध कार्य के लिए २१ सेंटर स्थापित किए गए हैं। उनमें से एक जबलपुर में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय में बायो-डिजाइन सेंटर भी है। विश्वविद्यालय के शोध में उच्च गुणवत्ता को देखते हुए इसे दोबारा वर्ष-२०२० तक बायो-डिजाइन सेंटर का दर्जा दिया गया है।
लोगों में इच्छाशक्ति की कमी
बायो डिजाइन सेंटर के डायरेक्टर एसएस संधू का कहना है, हमारे इस तरह के उपयोगी रिसर्च को इसलिए महत्व नहीं मिल पाता है, क्योंकि लोगों में इच्छाशक्ति की कमी है। वहीं, अन्य कीटनाशक दवा जैसे रिसर्च को भी अमल में नहीं लाया जाता है, क्योंकि इससे बड़ी कंपनियों को घाटा होता है।
ऐसे बनता है ईको क्रेडल
भूसे को छोटे-छोटे टुकड़ों में फंगस स्लरी (घोल) मिलाकर ढांचा तैयार किया जाता है। भूसे से बनाया यह ढांचा थर्माकोल की जगह प्रयोग किया जा सकता है। फंगस स्लरी होने के चलते इसमें मशरूम उत्पन्न हो जाते हैं, जो भूसे को अवशोषित कर लेते हैं। यह बायोडिग्रेडिबल खाद बन जाता है, जिसमें भूसा नष्ट हो जाता है और पर्यावरण या मिट्टी प्रदूषित नहीं होती है। जबकि थर्माकोल या अन्य उत्पाद कचरे के रूप में जलाकर नष्ट किए जाते हैं, जिससे बैंजीन गैस निकलती है, जो हवा को जहरीली बनाती है।