बता दें कि जबलपुर के सिटी हॉस्पिटल के संचालक सरबजीत सिंह मोखा व हॉस्पिटल में काम करने वाले कर्मचारी देवेश चौरसिया को कोरोना की दूसरी लहर के दौरान नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन हासिल कर मरीजों को लगाने के आरोप में पुलिस ने अप्रैल में गिरफ्तार किया था। उसके बाद दोनों को कोर्ट में पेश करते हुए जेल भेज दिया गया था। उसके बाद पुलिस अधीक्षक की संस्तुति पर कलेक्टर ने दोनों को एनएसए के तहत निरुद्ध करने का निर्देश दिया था। उसी वक्त से दोनों जेल में हैं। हालांकि इस मामले में सरबजीत की पत्नी और हॉस्पिटल की एडमिनिस्ट्रेटर को निजी मुचलके पर अंतरिम जमानत मिल चुकी है।
अब सरबजीत सिंह मोखा और देवेश चौरसिया की ओर से कोर्ट में एनएसए के खिलाफ याचिका दायर की थी, जिस पर सुनवाई के बाद कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी। हाई कोर्ट ने अपनी तल्ख टिप्पणी में कहा कि कोरोना महामारी के दौरान नकली रेमडेसिविर का इस्तेमाल अनुचित कार्य था। लिहाजा, एनएसए के खिलाफ सिटी अस्पताल, जबलपुर के संचालक सरबजीत सिंह मोखा व देवेश चौरसिया की याचिका खारिज की जाती है। कोर्ट इस तरह के मामले में कोई राहत नहीं दे सकती।
न्यायमूर्ति सुजय पॉल व जस्टिस अनिल वर्मा की युगलपीठ के समक्ष मामले की सुनवाई हुई। इस दौरान प्रदेश शासन की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता विवेक दलाल व अधिवक्ता पलक जोशी ने पक्ष रखा और दलील दी कि जिला कलेक्टर व दंडाधिकारी, जबलपुर ने नकली रेमडेसिविर के इस्तेमाल को गंभीरता से लेते हुए एनएसए की कार्रवाई का आदेश पारित किया था, जिसे दी गई चुनौती खारिज किए जाने योग्य है। वहीं याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने पक्ष रखा। उन्होंने दलील दी कि एनएसए लगाने का ठोस आधार मौजूद नहीं था। इसलिए एनएसए का आदेश निरस्त किए जाने योग्य है।
प्रदेश शासन की ओर से याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया गया कि पांच जुलाई को सभी पहलुओं पर गौर करने के बाद ही एनएसए की कार्रवाई की गई थी। पुलिस ने अपराध पंजीबद्ध करने के बाद अपनी जांच के दौरान ऐसे कई तथ्य उजागर किए, जिनसे साफ हो गया कि एनएसए की कार्रवाई के लिए यह मामला पूरी तरह उपयुक्त था।