केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा द्वारा लोकसभा में रखे गए आंकड़ों के मुताबिक देश की जेलों में 4.88 लाख कैदी बंद हैं। इनमें सजायाफ्ता कैदियों की संख्या महज 1.12 लाख ही है। 3.71 लाख यानी की 76 प्रतिशत विचाराधीन बंदी हैं। इनमें 23 हजार से अधिक ऐसे बंदी हैं, जो 3 साल से लेकर 7 व 8 साल से सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं। न तो उनका गुनाह साबित हुआ है और न ही जमानत मिली है। वहीं, जेल में बंद दो से तीन साल के बीच के विचाराधीन बंदियों की संख्या 29 हजार से अधिक है। इस मामले में उत्तरप्रदेश पहले नंबर पर है। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि उन विचाराधीन आरोपियों को जमानत दी जानी चाहिए जिन्होंने अपने ऊपर लगे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा का आधा समय बतौर आरोपी जेल में व्यतीत कर लिया है। लेकिन लंबी प्रक्रिया और पहल की कमी से एक बार जेल में दाखिल हुए ये बंदी बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। कोरोना काल में मिली पैरोल के बाद कुछ बंदी सालों बाद घर लौटे जरूर पर अब फिर कैद में पहुंच गए हैं।
गुनाह के बारे में जानकारी कम
यह भी एक बड़ा तथ्य है कि कई विचाराधीन बंदियों को अपने गुनाह और सजा के बारे में जानकारी नहीं होती है। वजह जेलों में बंद 27 प्रतिशत लोग अनपढ़ हैं और 41 फीसदी महज दसवीं तक ही पढ़े हैं। कम पढ़े-लिखे होने की वजह से उन्हें यह पता नहीं लग पाता है कि उनके खिलाफ कौन सी धाराएं लगी हैं और उन्हें कैसे राहत मिल सकती है। यही कारण है अपने लिए वकील रखने या फिर अपने लिए ज़मानत का इंतजाम करने में उन्हें मुश्किलें आती हैं।
यह भी एक बड़ा तथ्य है कि कई विचाराधीन बंदियों को अपने गुनाह और सजा के बारे में जानकारी नहीं होती है। वजह जेलों में बंद 27 प्रतिशत लोग अनपढ़ हैं और 41 फीसदी महज दसवीं तक ही पढ़े हैं। कम पढ़े-लिखे होने की वजह से उन्हें यह पता नहीं लग पाता है कि उनके खिलाफ कौन सी धाराएं लगी हैं और उन्हें कैसे राहत मिल सकती है। यही कारण है अपने लिए वकील रखने या फिर अपने लिए ज़मानत का इंतजाम करने में उन्हें मुश्किलें आती हैं।
गरीबी भी सजा से कम नहीं
एनसीआरबी के आंकड़ों में बताया गया था कि जेल में बंद होने वालों में आधी संख्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के वर्ग के लोगों की है। 25 प्रतिशत दलित और इतने ही आदिवासी जेल पहुंचते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर इन वर्गों के लिए गरीबी किसी सजा से कम नहीं होती है। यही वजह है कि यह पैरवी और जमानत के लिए व्यवस्था नहीं कर पाते हैं। आलम यह है कि कई आदिवासियों के जेल में जाने के बाद सालों तक उनसे मिलने या संपर्क के लिए कोई भी आगे नहीं आता है।
देश की यह स्थिति
488511 कुल कैदी
371848 विचाराधीन बंदी
112589 सजायाफ्ता
23731 तीन से 5 साल या इससे अधिक समय से बंद विचाराधीन आरोपी
29194 दो से 3 साल से बंद आरोपी
54287 एक से 2 साल से बंद आरोपी
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मध्यप्रदेश
45364 कुुल कैदी
3712 विचाराधीन
13654 सजायाफ्ता
1043 तीन से 5 साल या इससे अधिक समय से बंद विचाराधीन आरोपी
1721 दो से 3 साल से बंद आरोपी
5495 एक से 2 साल से बंद आरोपी
(नोट- 2020 की स्थिति, जैसा केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा ने लोकसभा में बताया।)
एक्सपर्ट
प्रकरण दर्ज होने से लेकर विवेचना, चालान पेश करने और उसके ट्रायल के लिए टाइमलाइन तय है। सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर इसके लिए व्यवस्था दी है। बिहार के अरनेश कुमार के मामले में दिए गए आदेश को हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कानून में बदलने को कहा है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन का पालन नहीं हो रहा है। आखिर जो व्यक्ति बिना सजा के जेल में बंद है, वे अगर दोषमुक्त होते हैं तो उनके जीवन में आई कमी की भरपाई कौन करेगा। सात साल से कम की सजा वाले अपराधों में जेल अपवाद होना चाहिए।
अखंड प्रताप सिंह, सदस्य स्टेट बार कौंसिल
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अपराध एक सामाजिक समस्या है और इसे सामाजिक नजरिए से ही देखा जाना चाहिए। जेलों में लंबे समय तक बंद विचाराधीन बंदियों की स्थिति देखने से ही पता चल जाता है कि सच्चाई क्या है। विधायिका और न्यायपालिका को मिलकर इस पर काम करना चाहिए कि बिना अपराध सिद्ध ही कोई सजा का भागीदार नहीं बन पाए। अपने नागरिकों के प्रति सरकारों की अधिक जिम्मेदारी की अपेक्षा की जाती है। जमानत कानूनी अधिकार बनाए जाने की जरूरत है।
विजय वाते, सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक