रगों में बसी संस्कृति
महाकोशल अंचल के पाटन गढ़ गांव में जन्म 46 वर्षीय भज्जू श्याम गरीब आदिवासी परिवार से हैं। उन्होंने गरीबी ही नहीं बल्कि आदिवासी संस्कृति को करीब से देखा और जिया है। वह उनके रगों में बसी है। इसी संस्कृति को उन्होनेंं अपनी तूलिका से कागजों पर उकेरा और उसमें कला के रंग भरे हैं। उनकी कलाकृतियों को देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पसंद किया गया है।
खूब बिकी कृति
साथी चित्रकार विनय अंबर के अनुसार भज्जू श्याम अपनी गोंड पेंटिंग के जरिए यूरोप में भी प्रसिद्धी हासिल कर चुके हैं। उनके कई चित्र किताब का रुप ले चुके हैं। ‘द लंडन जंगल बुक’ की 30000 कॉपी बिकी और यह 5 विदेशी भाषाओं में छप चुकी है। इन किताबों को भारत और कई देशों (नीदरलैंड, जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, कर्जिस्तान और फ्रांस) में प्रदर्शित व पसंद किया गया है।
चौकीदार की नौकरी
अपनी कृतियों के लिए दुनियाभर में ख्याति अर्जित कर चुके भज्जू श्याम जबलपुर के पास पाटनगढ़ गांव के निवासी हैं। गोंड कलाकार भज्जू श्याम की पेंटिंग की दुनिया में अलग ही पहचान बनी है। गरीब आदिवासी परिवार में जन्म भज्जू श्याम ने अपने संघर्ष के दिनों में रात में चौकीदार की नौकरी भी की है। प्रोफेशनल आर्टिस्ट बनने से पहले भज्जू जी इलेक्ट्रिशियन का काम भी किया। इसी के सहारे वे अपना व परिवार का भरण पोषण करते थे। कई बार हालातों ने मजबूर किया, लेकिन उन्होंने कला का अपना रास्ता नहीं छोड़ा। साथी चित्रकार विनय के अनुसार भज्जू श्याम जबलपुर में भी रहे हैं। वे यहां भी अपनी कला का जौहर दिखा चुके हैं। उन्हें मिली इस उपलब्धि से संस्कारधानी के कलाकारों की पूरी टीम में खुशी का माहौल है।
मां बनाती थीं चित्र
गोंड कलाकार भज्जू श्याम की पेंटिंग्स दुनिया में अलग ही पहचान बना चुकी हैं। 1971 में जन्मे भज्जू श्याम के अनुसार उनकी मां घर की दीवारों पर पारंपरिक चित्र बनाया करती थीं और दीवार के उन भागों पर जहां उनकी मां के हाथ नहीं पहुंच पाते थे, वहां भज्जू श्याम अपनी उनकी मदद किया करते थे। बस यहीं से कला ने उनके मन में जन्म लिया और उसी के सहारे वे इस मुकाम तक पहुंचे हैं। इसका श्रेय वे अपने सभी स्नेहीजनों को देते हैं।