छिपा है सेहत का विज्ञान
भारतीय पर्वों की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर बरगवां निवासी पं. स्व. हरि प्रसाद तिवारी ने सारगर्भित बातें लिखी हैं। उन्होंने लिखा है कि पहले मकान कच्चे होते थे। बारिश के बाद खेतों में फसल लग जाती थी। मौसम के संधिकाल में कीट पतंगे बढ़ जाते थे। सादगीपूर्ण जीवन और कच्चे मकानों आज के जैसे सुविधाएं नहीं थीं। लोग दीपावली की तरह ही होली पर भी घरों की सफाई करते थे। होली पर घर की सफाई से निकले कचरे और घरों के समीप बाडिय़ों में लगी पुरानी लकडिय़ां होलिका में जला दिया जाता था। इसके बाद घरों पर नई बाड़ लगाई जाती थी। लकडिय़ों के साथ अंडी (एक तरह का विषैला पौधा) भी जलाई जाती थी, जिससे वायरस व कीट पतंगे नष्ट जाते थे। जलती होली में ही चना व नवधान्य का होला भूंजा जाता था, जिसे लोग खाते थे।
ये है होलाष्टक का विज्ञान
सनातन धर्म यानी हिन्दू धर्म में कोई भी वैदिक परम्परा अवैज्ञानिक नहीं है। हर रीति-रिवाज और नियम के पीछे कुछ न कुछ रहस्य व जीवन का विज्ञान है। यही विज्ञान होलाष्टक में भी है। हालांकि होलिका दहन के साथ ही होलाष्टक समाप्त हो जाएंगे। होलाष्टक का जिक्र ज्योतिषाचार्य पं. स्व. एचपी तिवारी ने अपनी पुस्तक में किया है। पं. तिवारी ने लिखा है कि फाल्गुन का महीना शिशिर और वसंत के संधिकाल का होता है। पतझड़ के बाद प्रकृति खुद सजीली चादर ओढ़ लेती है। बागों-बगीचों में वसंत की मादकता इतराने लगती है। मनुष्य इसका आनंद ले सकें, इसलिए यह नियम बनाए गए हैं। होली के ठीक आठ दिन पहले होलाष्टक शुरू हो जाता है। इस वक्त गांवों में हल्की फसलों की कटाई और गहाई का माहौल होता है। लोग फसलों की समय पर कटाई करके रंगों के महापर्व का भरपूर आनंद ले सकें, इसलिए होलाष्टक में वैवाहिक व मांगलिक कार्य निषिद्ध कर दिए गए। खर मास भी पारिवारिक उत्सव और आनंद के लिए रखा गया। अगर इस दौरान वैवाहिक कार्य होते तो लोगों को घर परिवार छोड़कर जाना पड़ता और त्यौहार की यह रूमानियत गायब हो जाती।
फागुनी गीतों की बहार
मनीषियों का मानना है कि भारत गांवों में बसता है। फागुन के शुरू होते ही गांवों में टिमकी और मृदंक की थाप पर फागुनी गीतों को गाने, बजाने और झूमकर नाचने का दौर शुरू हो जाता है, जो रंग पंचमी के बाद तक निरंतर चलता है। प्रकृति की रंगत के बीच उल्लास के माहौल में लोग वैर भाव भूलकर खुशियों के रंग में रंग जाते हैं।
विदाई और स्वागत
पं. स्व. श्री तिवारी की पुस्तक के अनुसार वैदिक परम्परा में विदाई भी सम्मान जनक होती थी। दरअसल फागुन का महीना साल (संवत्सर) की विदाई का है। लोग नाच गाकर और रंगों की फुहार के बीच जहां संवतसर की विदाई करते हैं, वहीं प्रतिपदा पर मां भगवती की आराधना और उपासना के साथ नए वर्ष (संवत्सर) का स्वागत किया जाता है। इस दौरान होलाष्टक और खर मास में वैवाहिक एवं मांगलिक कार्यों के निषेध का सीधा से अर्थ यही था कि लोग संवत्वर की विदाई और स्वागत का आनंद जीवंतता के साथ ले सकें। होलाष्टक में विवाह, उपनयन, गृह प्रवेश आदि को वर्जित माना जाता है।
और ये भी कथा
होलिका दहन की कथा भक्त प्रहलाद और उनकी बुआ होलिका से जुड़ी हुई है। मान्यता है कि होली से पहले अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक आठ दिन प्रहलाद को काफी यातनाएं दी गई थीं, इस बात ने लोगों को दुखी कर दिया था। इस दुख की वजह से लोगों ने कोई भी शुभ कार्य नहीं किया और तब आठ दिन तक शुभ कार्य नहीं करने की परम्परा प्रारंभ हो गई। इसे होलाष्टक के नाम से जाना गया। यातनाओं से भरे उन आठ दिनों को ही अशुभ मानने की परंपरा बन गई. हिन्दू धर्म में किसी भी घर में होली के पहले के आठ दिनों में शुभ कार्य नहीं किए जाते। दरअसल भगवान विष्णु की भक्ति करने और समझाने के बाद श्री हरि की भक्ति नहीं छोडऩे के कारण अत्याचारी पिता ने ही अपने पुत्र प्रहलाद को मौत की सजा सुनाई थी। उसने प्रहलाद को अनेक यातनाएं दीं। उन्हें मारने के लिए जंगली जानवरों के बीच छोड़ा, नदी में डुबो दिया, ऊंचे पर्वत से भी फेंका गया। हर सजा पर प्रहलाद भगवान की कृपा से बच गया। अंत में राजा ने अपनी बहन होलिका की गोद में बिठाकर प्रहलाद को जिंदा जला डालने का हुक्म दिया था। होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में भी भस्म नहीं होगी. प्रभु कृपा से प्रहलाद तो बच गया मगर होलिका जल गई. उस दिन से होलिका दहन की परंपरा शुरू हो गई। होलिका के मरने के बाद लोगों ने खूब हंसी-ठिठौली की और आनंद मनाया। यही होलिकोत्सव बन गया।
डंडा और कंडा
ज्योतिषार्य पं. अखिलेश त्रिपाठी के अनुसार होलाष्टक सिंध प्रांत में अधिक माना जाता था। होलाष्टक के दिन होलिका दहन के स्थान पर दो डंडे गड़ाए जाते थे। एक को होलिका और दूसरे को प्रहलाद का प्रतीक माना जाता था। बाद में गांवों के लोग श्रद्धा के अनुसार कंडे व लकडिय़ां दान में देते थे, जिन्हें होलिका दहन की रात जलाया जाता था। इसका एक पहलू यह भी है कि खेती के कटने के बाद उसकी सुरक्षा के लिए लगाई गई पुरानी बाड़ और पतझड़ से गिरे पत्तों आदि को उखाड़कर जला दिया जाता था, ताकि कचरे की वजह से गर्मी में आगजनी आदि का भय नहीं रहे।