जबलपुरPublished: Mar 30, 2019 02:16:39 pm
santosh singh
हार-जीत जिंदगी का हिस्सा है। यह जरूरी नहीं कि हर मोर्चे पर व्यक्ति को जीत ही मिले। चुनाव भी इन्हीं मोर्चों में एक है, जिसमें एक जीतता और बाकी हारते हैं। अन्य मोर्चों पर हार की तुलना में चुनावी हार बेहद मारक होती है और कई बार तो राजनीतिज्ञों को भीतर तक झकझोर देती है…
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जबलपुर। हार-जीत जिंदगी का हिस्सा है। यह जरूरी नहीं कि हर मोर्चे पर व्यक्ति को जीत ही मिले। चुनाव भी इन्हीं मोर्चों में एक है, जिसमें एक जीतता और बाकी हारते हैं। अन्य मोर्चों पर हार की तुलना में चुनावी हार बेहद मारक होती है और कई बार तो राजनीतिज्ञों को भीतर तक झकझोर देती है। अपनी जिंदगी में पार्षदी से लेकर राष्ट्रपति तक का चुनाव लड़ चुके बरेली के काका जोगिन्दर सिंह उर्फ ‘धरती पकड़ सिंह’ की तरह जबलपुर लोकसभा के चुनावी इतिहास में भी कई ऐसे चरित्र हैं, जो लड़े तो कई बार, लेकिन जीत नहीं पाए। बावजूद वे लोकतंत्र के उत्सव में राजनीति के ‘धरती पकड़ सिंह’ की तरह शामिल होने से खुद को रोक नहीं पाते हैं।
सहर्ष हार भी स्वीकार कर लेते हैं
लोकसभा चुनाव को लेकर भले ही मतदाताओं में भाजपा-कांग्रेस प्रत्याशियों की चर्चा सबसे अधिक हो रही हो, लेकिन ऐसे किरदार भी है, जो पिछले कई चुनाव से मतदाताओं के बीच पहुंचते हैं। समर्थन मांगते हैं, परिणाम आता है तो सहर्ष हार भी स्वीकार कर लेते हैं। शहर में भी राजनीति के कई ‘धरती पकड़ सिंह’ हैं।
दिलचस्प है ढाई अक्षर का चुनावी सफरनामा
ऐसा ही एक नाम भानतलैया सिंधी कैम्प निवासी ढाई अक्षर उर्फ राकेश सोनकर (50 ) का है। पार्षद से लेकर विधानसभा और लोकसभा में वह निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव में उतरते रहे हैं। वर्ष 2004 से लेकर 2014 तक तीनों लोकसभा की बात हो या फिर विधानसभा और निकाय चुनाव में पार्षद की। हर चुनाव में हार के बावजूद उत्साह पर कोई असर नहीं पड़ा है। इस बार भी वे आम चुनाव में बतौर निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर उतरने की तैयारी में जुटे हैं।
नाम के पीछे दिलचस्प कहानी
राकेश सोनकर ने रादुविवि से ‘पोथी पढ़, पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय, ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो राकेश होय’ विषय पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के लिए वर्ष 2012 में उच्च न्यायालय में याचिका लगाई थी। इसके बाद से वे अपने नाम के साथ ‘ढाई अक्षर’ जोड़ लिया।
ये चुनाव के महारथी
-आचार्य विनोवा भावे वार्ड निवासी इंजीनियर प्रवीण गजभिए उर्फ दादा भी राजनीति के धरती पकड़ हैं। वे भी विधानसभा से लेकर लोकसभा चुनाव में वर्ष 2004 और 2014 में अपनी किस्मत आजमा चुके हैं।
–अधिवक्ता प्रेम प्रकाश अम्बेडकर-चुनावी लोकतंत्र में प्रेमप्रकाश अम्बेडकर 1999, 2004 में लोकसभा का निर्दलीय चुनाव लड़ चुके हैं।
–स्वामी सुरेश वर्मा भी 1999, 2004 में लोकसभा में किस्मत आजमा चुके हैं।
ये थे धरती पकड़ सिंह
काका जोगिंदर सिंह उर्फ धरती पकड़ सिंह भारत के चुनावी इतिहास के एक मात्र ऐसे चरित्र रहे, जो 350 बार चुनाव लड़े और सभी में हार का सामना करना पड़ा। पाकिस्तान के गुजरांवाला में 1934 में जन्मे काका का बरेली कर्म स्थल बना। पैरालाइसिस अटैक से 1998 में 80 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। राजनीति में दलबदल बेहद पुरानी परंपरा है और नेता अपने फायदे के लिए कई पार्टियां बदल लेते हैं, लेकिन काका ‘धरती पकड़’ ने कभी भी किसी पार्टी का दामन नहीं थामा। वह हमेशा निर्दलीय चुनाव लड़े।
चुनाव प्रचार में नहीं खर्च किया एक रुपया
उन्होंने कभी भी चुनाव प्रचार या वोट देने के लिए एक रुपया खर्च नहीं किया, लेकिन चुनावी घोषणापत्र वह जरूर जारी करते थे। उनके हर घोषणापत्र में विदेशी कर्जा चुकाना, बच्चों का बचपन बचाना व देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बार्टर सिस्टम लागू करना शामिल रहते थे.