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जबलपुर

1857 में शंकरशाह-रघुनाथशाह के छंद से दहल गए थे अंग्रेज

1857 में शंकरशाह-रघुनाथशाह के छंद से दहल गए थे अंग्रेज
तोप से उड़ा कर क्रांति की आग बुझाना चाहते थे, लेकिन वह आग बुझी नहीं, बल्कि दावानल बन गई

जबलपुरAug 09, 2022 / 12:25 pm

Prabhakar Mishra

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जबलपुर.वीरों के वंशज थे रगों में वीरता समाई थी, जिनके छंदों से अंग्रेज दहल गए। ब्रिटिश हुकूमत में उनके नाम की ऐसी दहशत हो गई थी कि क्रांतिवीर पिता-पुत्र शंकरशाह-रघुनाथशाह को 18 सितम्बर 1857 को तोप के मुंह पर बांधकर उड़ा दिया। दोनों के अंग क्षत-विक्षत होकर बिखर गए। गोंडवाना साम्राज्य के इन अमर बलिदानियों के बलिदान ने समूचे महाकोशल, बुंदेलखंड से होते हुए देशभर में आजादी के परवानों को आंदोलित कर दिया। अंग्रेज राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ा कर क्रांति की आग बुझाना चाहते थे, लेकिन वह आग बुझी नहीं, बल्कि दावानल बन गई।
गद्दारों ने पहुंचा दी सूचना-

गोंडवाना साम्राज्य के प्रतापी राजा शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह ने देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में समूचे महाकोशल अंचल का नेतृत्व किया था। पुरवा ग्राम में रह कर उन्होंने गुप्त रूप से वर्ष 1857 के महासंग्राम में सैनिकों को क्रांति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था। साथियों और 52वीं रेजीमेंट के सैनिकों के साथ मिलकर पिता-पुत्र ने क्रांति योजना बनाई। मोहर्रम के दिन छावनी पर आक्रमण करना सुनिश्चित किया गया, लेकिन देश के गद्दार ने यह सूचना अंग्रेजों तक पहुंचा दी। गद्दार खुशहाल चन्द व दो अन्य जमींदारों ने भी गद्दारी की। डिप्टी कमिश्नर ने षडयंत्र रचा, उसने एक तरफ सुरक्षा बढ़ाई, दूसरी ओर सैनिकों के असंतोष के स्रोत का पता लगाने के लिए गुप्तचरों का जाल बिछाया।
षडयंत्र का शिकार-

सुनियोजित योजना बनाकर फकीर के वेश में एक गुप्तचर राजा शंकरशाह के पास भेजा गया। राजा ने उसे क्रांति मार्ग का पथिक मानकर योजना बता दी। सूचना मिलते ही 14 सितम्बर, 1857 को डिप्टी कमिश्नर अपने लाव-लश्कर के साथ राजा शंकरशाह के गांव पुरवा पहुंचा। राजा के घर की तलाशी ली गई। इसमें क्रांति संगठन के दस्तावेजों के साथ राजा शंकरशाह द्वारा लिखित एक कविता मिली। ये कविता अपनी आराध्य देवी को संबोधित कर लिखी गई थी।
कविता यह थी-

मूंद मुख डंडिन को चुगलौं को चबाई खाई, खूंद डार दुष्टन को शत्रु संहारिका, मार अंगरेज, रेज कर देई मात चंडी,बचै नाहिं बैरी-बाल-बच्चे संहारिका, संकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर, दीन की पुकार सुन आय मात कालका, खाइले मलेछन को, झेल नाहि करौ मात, भच्छन तच्छन कर बैरिन कौ कालिका। ये ही कविता उनके बेटे रघुनाथशाह की हस्तलिपि में भी थी।
बंदी बनाया-

दोनों क्रांतिवीर पिता-पुत्र को बंदी बनाकर सैनिक जेल में रखा गया। अदालत में देशद्रोह रूपी कविता लिखने के जुर्म में राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। दुनिया में साहित्य सृजन को लेकर दी जाने वाली यह अमानवीय सजा थी। क्रांतिकारी राजा और उनके पुत्र को मृत्युदंड और फांसी पर न चढ़ाकर तोप से उड़ाना सुनिश्चित किया गया।
एजेंसी हाउस के सामने फांसी परेड-

एजेंसी हाउस के सामने फांसी परेड हुई। राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को जेल से लाया गया, मौजूदा मालगोदाम चौक (बलिदान स्थली) में तोप के मुंह से बांध दिया गया। दोनों के चेहरे आत्म-विश्वास से परिपूर्ण थे। राजा को देखने अपार जन-सैलाब उमड़ा था। भीड़ उत्तेजित थी, राजा शंकरशाह ने आराध्य देवी से प्रार्थना की कि वे उनके बच्चों की रक्षा करें जिससे वे अंग्रेजों का देश निकाला कर सके। तोप चलते ही दोनों के अंग क्षत-विक्षत होकर चारों ओर बिखर गए।
अधजले अवशेष का अंतिम संस्कार-

रानी ने अधजले अवशेष को एकत्र कर उनका विधिवत अंतिम संस्कार किया। 52वीं रेजीमेंट के सैनिक उसी रात क्रांति की राह पर चल दिए। अंग्रेजों ने दमन चक्र चलाया और क्रांति की ज्वाला को दबाने का सघन अभियान शुरू किया। स्वतंत्रता संग्राम कुचले जाने के बाद भी जनजातियों ने वर्ष 1866 तक युद्ध किया। वीर जनजातियों ने प्रत्यक्ष युद्ध किया, वहीं क्रांतिकारियों को पनाह देकर परोक्ष संघर्ष भी किया। नगरों में असफलता के बाद भी वनों में क्रांति की आग सुलगती रही। अंग्रेजों ने जनजातियों के दमन का अलग ही मार्ग निकाला, उन्हें विभिन्न जातियों में विभाजित कर चोर, लूटेरा घोषित करना शुरू किया।

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