देश की सेना ने कोई भी युद्ध लड़ा हो, उसका जुड़ाव जबलपुर से हमेशा रहा है। 1999 के करगिल युद्ध में यहां बने हथियारों ने रणक्षेत्र में विध्वंस मचाया था। जब दुश्मन ऊंची पहाड़ी से हमला कर रहा था तब स्वीडन से आयातित और गन कैरिज फैक्ट्री (जीसीएफ) में असेंबल बोफोर्स तोप ने उन्हें पीछे खदेड़ा था। इसी बोफोर्स का स्वदेशी वर्जन 155 एमएम 45 कैलीबर धनुष तोप जीसीएफ में ही तैयार किया गया है।
मोर्टार भी काम आए
धनुष वर्तमान समय में सेना के पास सबसे बड़ी तोप में से एक है। यह बोफोर्स की तुलना में 10 किमी ज्यादा दूरी यानी 40 किमी तक गोला दाग सकती है। इस तोप में लगातार नए परिवर्तन किए जाते रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस तोप ने सारे पैमानों को पार किया है। इसकी तैनाती भी सीमा पर होने लगी है। जीसीएफ के मोर्टार भी आमने-सामने की लड़ाई में काम आए थे, उसकी तकनीक भी बदलती रही है।
पहाड़ों पर आसानी से चढ़ा शक्तिमान
वीकल फैक्ट्री जबलपुर (वीएफजे) में बने शक्तिमान सैन्य वाहन की खूबियों की सेना कायल रही। ऊंची पहाडि़यों में हथियार और सैनिकों को पहुंचाने में ब़डी मदद की। उस समय यही ट्रक था जो दुर्गम स्थलों तक आसानी से पहुंचता था। इसी प्रकार स्टालियन और एलपीटीए वाहन शुरुआती उत्पादन के चरण में था। अब भी इनका उत्पादन हो रहा है। बस तकनीक में बदलाव हो गया है। अब सेना के रक्षा कवच के लिए यहां पर मॉडिफाइलड माइन प्रोटेक्टिड वीकल (एमएमपीवी) का उत्पादन किया जा रहा है।

पहले बोफोर्स अब धनुष में उपयोग
ऑर्डनेंस फैक्ट्री खमरिया (ओएफके) में बना 155 एमएम का गोला उस समय दुश्मन के खेमे में विध्वंस मचा रहा था। इसका इस्तेमाल उस समय बोफोर्स तोप में किया जा रहा था। ऊंचे पहाड़ पर बैठा दुश्मन ऊपर से हमला कर रहा था, तब हमारी सेना को बहुत नुकसान हुआ था। जानकारों ने बताया कि जब बोफोर्स से गोला दागा तब वहां खलबली मच गई। यही गोला आज स्वदेशी धनुष तोप में इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार हल्के वजन और घातक 30 एमएम बीएमपी-2 गोला की मांग अभी भी सेना से आती है। इसका उत्पाद हो रहा है।