अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है
जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध तर्पण आदि नहीं कर पाते या जिन्हें पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके श्राद्ध, तर्पण इत्यादि इसी अमावस्या के दिन किए जाते हैं। इसलिए अमावस्या के दिन पितर अपने पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से आते हैं यदि उन्हें वहां पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती, तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते हैं, जिससे पितृदोष लगता है और इस कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कोई ेकाम समय पर नहीं होता, दांपत्य जीवन में कलह रहती है, शादी विवाह नहीं होते, धन-संपत्ति होने के बाद भी घर में खुशी नहीं रहती। यदि ऐसी दिक्कते हैं तो पितर आपसे नाराज हैं। महालया का तात्पर्य महा यानी उत्सव दिन और आलय यानी के घर अर्थात् कृष्ण पक्ष में पितरों का निवास माना गया है। इसलिए इस काल में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किए जाते हैं जो महालय भी कहलाता है। यदि कोई पितृदोष से पीडि़त हो तो उसे सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितरों का श्राद्ध-तर्पण अवश्य करना चाहिए।
श्राद्ध नियम- शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण नियमों का अनुमोदन किया गया है, जिनके पालन श्राद्ध क्रिया को उचित प्रकार से किया जा सके और पितरों को शांति प्राप्त हो सके। यह नियम इस प्रकार कहे गए हैं कि दूसरे के निवास स्थान या भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। श्राद्ध में पितरों की तृप्ति के लिए ब्राह्मण द्वारा पूजा कर्म करवाए जाने चाहिए। श्राद्ध में सर्वप्रथम अग्नि को भाग अर्पित किया जाता है, तत्पश्चात हवन करने के बाद पितरों के निमित्त पिण्डदान किया जाता है। श्राद्ध के समय में वस्त्र का दान करना चाहिए। श्राद्ध के समय में तर्पण करते हुए दोनों हाथों से ही जल प्रदान करना चाहिए।
श्राद्ध में पिण्डदान- श्राद्ध में पिण्डदान का बहुत महत्त्व होता है। बच्चों एवं संन्यासियों के लिए पिण्डदान नहीं किया जाता। श्राद्ध में बाह्य रूप से जो चावल का पिण्ड बनाया जाता, जो देह को त्याग चुके हैं वह पिण्ड रूप में होते हैं, यह इसीलिए किया जाता है कि पितर मंत्र एवं श्रद्धापूर्वक किए गए श्राद्ध की वस्तुओं को लेते हैं और तृप्त होते हैं। श्राद्ध के अनेक प्रकार होते हैं, जिसमें नित्य श्राद्ध, काम्य श्राद्ध, एकोदिष्ट श्राद्ध, गोष्ठ श्राद्ध इत्यादि हैं।