इस गांव की महिलाएं नहीं पहन सकती साड़ी के साथ ब्लाउज़ क्योकि वहां पुरुष...
इस गांव की महिलाएं नहीं पहन सकती साड़ी के साथ ब्लाउज़ क्योकि वहां पुरुष...

जबलपुर। इन दिनों सोशल साइट्स पर मॉडल्स और कुछ एक्ट्रेसेस की साड़ी वाली फोटो वायरल हो रही हैं। इनकी खासियत साड़ी या उनकी खूबसूरती नहीं है, बल्कि बिना ब्लाउज के साड़ी पहनने पर लोगों का ज्यादा ध्यान है। सोशल साइट्स पर एक्टिव लोग इन फोटोस को लाइक भी कर रहे हैं।
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...लेकिन क्या आप जानते हैं मप्र में कुछ गांव ऐसे भी हैं, जहां साड़ी के साथ ब्लाउज पहनने की प्रथा नहीं है। वहां की महिलाएं साड़ी को कुछ इस तरह से पहनती हैं कि वहां के पुरुषों को इसमें कुछ भी अश्लीलता दिखाई नहीं देती है। बल्कि सौंदर्य का बोध होता है। इसके अलावा एक गांव ऐसा भी मौजूद है, जहां अच्छी बारिश के लिए अर्धनग्र होकर हल चलाती हैं। ये टोटका कारगर साबित होता है, ऐसा ग्रामीणों का मानना है।
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नहीं पहना जाता ब्लाउज
जबलपुर जिले से मंडला और छत्तीसगढ़ राज्य की सीमा से लगे आदिवासी बहुत गांवों की महिलाएं बिना ब्लाउज के साड़ी पहनने की परंपरा को कई दशकों से निभाती चली आ रही हैं। यहां की स्थानीय आदिवासी औरतो का मानना है कि यह काम करने के लिए बहुत सुविधा होती है। इसके अलावा यह पहनावा बहुत पुराना है, लोग इस पहनावे के आदि हो चुके हैं। जिससे अश्लीलता या छेड़छाड़ जैसी घटनाएं भी यहां नहीं होती है। वहीं आज कल के फैशन ने इन इलाकों में भी दस्तक दे दी है, जिससे यहां की लड़कियां साड़ी के साथ ब्लाउज भी पहनने लगी हैं, किंतु अब भी इस परंपरा को बचाने में वृद्ध महिलाएं लगी हुई हैं।

बारिश के लिए नग्न होती हैं महिलाएं
हम बताने जा रहे हैं एक गांव की ऐसी सच्ची कहानी, जहां मेघों यानी इंद्रदेव को प्रसन्न करने के लिए महिलाएं निर्वस्त्र यानी नग्न होकर खेतों में हल चलाती हैं। दरअसल यह ग्रामीण परम्परा का एक टोटका है। ऐसी मान्यता है कि इस परंपरा को निभाने से इंद्र देवता प्रसन्न होते हैं और बारिश अच्छी होती है।
जबलपुर से करीब 47 किलोमीटर दूर दमोह जिले की सीमा से लगे मुरता गांव में भी अन्य किसानों की तरह सभी को बारिश का इंतजार है। मानसून की लेट होती गाड़ी मायूसी बढ़ा देती है। इससे यह चर्चा भी जुबान पर आ जाती है कि कहीं इस बार भी तो महिलाओं को खेत में हल चलाकर इंद्रदेव को मनाना नहीं पड़ेगा। आईएसबीटी, दीन दयाल चौक के समीप रह रहे श्रमिक राम प्रसाद महार बताते हैं कि उनके गांव मुरता में महिलाओं से हल चलवाने की परंपरा पुरानी है। अगर बारिश जलद नहीं आई तो गांव में वही परंपम्परा निभायी जाएगी।
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तन पर नहीं होते कपड़े
रामप्रसाद ने बताया कि महिलाओं द्वारा खेत में हल चलाने की परंपरा पुरखों के जमाने से चली आ रही है। यदि बारिश समय पर नहीं आती तो गांव में समाज की पंचायत बुलाई जाती है। इसमें महिलाओं से खेत में हल चलवाने का निर्णय लिया जाता है। तय तिथि पर महिलाएं हल लेकर खेत में जाती हैं। जिस महिला के हाथ में हल होता है यानी जो हल को पकड़कर जुताई करती है, उसके तन पर एक भी वस्त्र नहीं रहता।

रात में निभायी जाती है रस्म
रामप्रसाद के साथ केशव चौधरी ने बताया कि खेत में हल चलाने की रस्म रात 12 बजे के बाद निभायी जाती है। हल चलाने वाली मुख्य महिला निर्वस्त्र रहती है और अन्य महिलाएं चारों ओर से साड़ी या कपड़े का घेरा बनाकर उसे घेरे रहती हैं। खास बात ये है कि बैलों के स्थान पर हल को महिलाएं ही खींचती हैं। हल का मुठिया मुख्य महिला पकड़ती है, जो उनके पीछे चलती है। कार्यक्रम के दौरान आसपास पुरुषों की मौजूदगी पूर्णत: वर्जित रहती है। हल चलाने से पहले मेढ़े में यानी गांव सीमा पर नारियल आदि प्रसाद चढ़ाकर ग्राम देवताओं का भी आवाहन किया जाता है। रस्म के दौरान महिलाएं मंगल गीतों का गायन भी करती हैं। नृत्य का भी आयोजन होता है।
कई गांवों में है परंपरा
रामप्रसाद व केशव का कहना है महिलाओं द्वारा नग्न होकर खेत में हल चलाने की परंपरा केवल उनके गांव में ही नहीं, बल्कि आसपास के कई गांवों में प्रचलित हैं। कुछ लोग मेंढक-मेंढकी का विवाह भी करते हैं। कहीं गांव की खेरमाता को गोबर से ढंक देते हैं। रात भर इस प्रक्रिया के बाद दूसरे दिन दूध व जल से खेरमाता का अभिषेक किया जाता है। मान्यता है कि इस परंपरा को निभाने से बारिश जरूर होती है। राम प्रसाद व केशव ने बताया कि महिलाओं द्वरा खेत में हल चलाने की रस्म पूर्वजों के जमाने से निभायी जा रही है। यदि समय पर बारिश नहीं हुई तो इस बार भी यह परंपरा निभायी जाएगी। इसे श्रद्धा के भाव से देखा जाता है।
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